रचा - 'प्रेम-युग'
तुम नहीं बदली
जब
रचा - 'शांति पर्व'
तुम नहीं बदली
जब तक
जिया - 'क्रान्ति-काल'
तुम नहीं बदली
जब
कहा - सर्वत्र फैला
'मृत्यु-पाश'
तुम नहीं बदली
ज्यूँ ही
लिखा - 'देह'
तुम्हारे जीने के
सारे व्याकरण बदल गये
तुम किस 'सूत्र' में बंधी हो.
आ सकती हो
मेरी
सारी- 'शक्ति-पूजा'
तुम तक नहीं पहुँचती
(धरती, आकाश, वायु, प्रकाश)
व्याधि हैं
किन्तु! तुम
आ सकती हो
समूचा अस्तित्व धारण किए
प्रकृति में विचरण किए
जहाँ
शिलाखण्डों में बैठी
घास को सहला सको
साहचर्य और प्यार किए
हम
कोख में बो सकें
क्रान्ति के आसार-बीज.
( प्रस्तुत हैं अनिल पुष्कर कवीन्द्र की कवितायें ... पुष्कर जे.एन.यू.से रिसर्च कर रहे हैं .)