मंगलवार, जनवरी 19

ज्यूँ ही लिखा! देह         जब मैंने
रचा - 'प्रेम-युग'
तुम नहीं बदली
जब
रचा - 'शांति पर्व'
तुम नहीं बदली
जब तक
जिया - 'क्रान्ति-काल'
तुम नहीं बदली
जब
कहा - सर्वत्र फैला
'मृत्यु-पाश'
तुम नहीं बदली
ज्यूँ ही
लिखा - 'देह'
तुम्हारे जीने के
सारे व्याकरण बदल गये
तुम किस 'सूत्र' में बंधी हो.
सकती हो
मेरी
सारी- 'शक्ति-पूजा'
तुम तक नहीं पहुँचती
(धरती, आकाश, वायु, प्रकाश)
व्याधि हैं
किन्तु! तुम
सकती हो
समूचा अस्तित्व धारण किए
प्रकृति में विचरण किए
जहाँ
शिलाखण्डों में बैठी
घास को सहला सको
साहचर्य और प्यार किए
हम
कोख में बो सकें
क्रान्ति के आसार-बीज
( प्रस्तुत हैं अनिल पुष्कर कवीन्द्र की कवितायें ... पुष्कर जे.एन.यू.से रिसर्च कर रहे हैं .)

शनिवार, जनवरी 16



उसी तरह प्यार करो

मुझे तुम
उसी तरह प्यार करो
जैसा अब तक करती आई
करती हो, करती रहोगी
हमेशा हमेशा

मैं तुम्हारे
गर्भ में पड़ा बीज हूँ
शिराओं में बह रहा लहू हूँ
तुम्हारी चेतना की परवाज़ हूँ.

                         --अनिल पुष्कर कवीन्द्र

  

मंगलवार, जनवरी 5

मैं हूँ मानवी

मैं हूँ 
समर्पण है ,समझौते हैं ,
और तुम हो बहुत करीब 

मैं हूँ 
हँसी है ,खुशी है 
और तुम हो नजदीक ही

मैं हूँ 
दर्द है ,आंसू है ,
तुम कहीं नहीं 

मैं हूँ मानवी 
ओ सभ्य पुरुष !!
      --संध्या नवोदिता

बड़ी उम्मीदों से

बड़ी उम्मीदों से
मैं तुम में तलाशती हूँ
एक साथी

और नाउम्मीद हो जाती हूँ हर बार
एक पुरुष को पाकर 

     --संध्या नवोदिता