बुधवार, मई 11

क्या हिंसा ही एकमात्र विकल्प है ?



अगर आप भट्टा पारसौल की विडंबना से वाकिफ हैं तो आप इस कहानी को समझ सकते हैं. यही कहानी टप्पल की हो सकती है,यही करछना की ,,गंगा एक्सप्रेस वे की और अब यमुना एक्सप्रेस वे की. इन कहानियों के पात्रों के नाम और स्थान अलग हो सकते हैं ..समय भी थोड़ा बहुत अलग हो सकता है...पर पीड़ा एक ही है..तकलीफ एक ही है ..दर्द एक  सा है और संघर्ष के स्वर भी एक से हैं. सब छल के शिकार हुए हैं.भट्टा पारसौल में सड़क बनाने के नाम पर खेती की ज़मीने सरकार ने कौडियों के दाम लेकर  बिल्डरों को दीं और बिल्डर इन ज़मीनों को सोने के भाव बेच रहे हैं.और प्रभावित किसान चकित होकर अपनी सरकार की ये कारस्तानी देख रहा है.


ग्रेटर नोएडा के करीब बन रहे यमुना एक्सप्रेस वे से प्रभावित किसानों के आंदोलन से आखिर क्या सबक मिलता है? चार माह से जो लोग शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात कह रहे थे. पहले आवेदन, फिर प्रतिनिधिमंडल ले जाकर मिलना ,अधिकारियों के रोज चक्कर लगाना , रोज तर्क दिया जाना , किसी बड़े अधिकारी , जिम्मेदार अफसर नेता से बात तक न हो पाना , करते-करते चार माह बीत गए- अपनी बात कहने का फिर क्या रास्ता होना चाहिए? क्या अनशन, धरना, सुनवाई तभी होगी जब खुद अन्ना हजारे बैठेंगे बाक़ी जनता को यूँ ही दर्द से तडपने कराहने के लिए छोड़ दिया जाएगा .(अब यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है कि   भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे, बाबा रामदेव जैसे महापुरुषों ने मारे गए किसानों के घर जाकर सांत्वना तो दूर सहानुभूति का एक बयान तक नहीं दिया !!! इन बुनियादी सवालों पर इनकी बोलती क्यों बंद है ?)

ये बातें रोज की हैं तंत्र इस कदर संवेदनहीन हो चुका है कि अब तो खुद अपने ही ईमानदार और संवेदनशील आदमी को भी नहीं बख्श रहा. ईमानदार अफसर हो, इंजीनियर हो या ईमानदार नौकरशाह तंत्र के भ्रष्ट ठेकेदारों के षड्यंत्र का शिकार हो रहा है.... यह क्या हो रहा है? तमाम दफ्तरों में प्रभावितों की एप्लीकेशंस के अम्बार लगे हैं गाँव, शहर से लेकर राजधानियों तक जनता आंदोलनरत है. पर कहीं कोई सुनवाई नहीं . भूले भटके सुनवाई हो भी जाए तो बेनतीजा . कहीं न्याय मिले भी तो इतनी देर में कि न्याय के मानी ही खत्म हो जाय न्याय खुद ही अन्याय से बड़ा नजर आने लगे.

ऐसे में क्या कहा जाए ? क्या सांत्वना दी  जाए? जनता के प्रदर्शन अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो सत्ता हिंसा की ओर बढ़ रही है   जनता का धैर्य चुक रहा है. अन्याय को सहने की शक्ति जवाब दे रही है. पुलिस, सेना भी लाठी गोली के साथ तैयार है असहमति की  हर आवाज को नेस्तनाबूत करने के लिए.

सवाल यही है कि क्या अब हिंसा ही एकमात्र उपाय है?अपने ही लोगो पर ,अपनी चुनी सरकार की लाठियां ,गोलियाँ बरस रही हैं.जिन किसानो के वोट से सरकार बनी आज उन्हीं को सरकार अपराधी बता रही है और हद तो ये कि उस पर इनाम तक घोषित करने में कोई शर्म नहीं ! गोलियाँ किसी दाउद इब्राहीम पर नहीं बल्कि अपने ही किसानो पर दागी जा रही है... ज़मीने हथियाने का सरकारी लालच यहाँ तक बढ़ा है कि गाँवों में खेतियाँ किसानो के लहू से लाल हो चुकी है.

भट्टा पारसौल को जाने वाली हर न्यायपूर्ण, सहानुभूति की आवाजों को क्यों रोका जा रहा है ?वहाँ जाने के रास्तों पर पहरे क्यों हैं ? गाँव वाले अपने घरों से किसके खौफ से भागे घूम रहे हैं ? असहमति की आवाज़ सुनने का साहस सत्ता में क्यों नहीं है ? क्या कोई सुनवाई का , सच का, न्याय का, अब कोई रास्ता नहीं बचा ??

रविवार, मई 8

आतंक का ये कैसा खात्मा !!


  अमरीका पर हमले  के आरोपी  ओसामा को अमरीकियों ने जिस तरह दूसरे देश में ,बिना जानकारी या  इजाज़त के  घुसकर मारा है, तीन हज़ार अमरीकी नागरिकों की मौत का हिसाब तीन लाख से भी ज़्यादा बेकसूरों को अफगानिस्तान में मार कर लिया है(जिसे बताते हुए ओबामा भी फख्र महसूस कर रहे  हैं.)एक ज़िम्मेदार ,लोकतंत्र के सबसे बड़े हिमायती, बहुत न्यायपसंद होने का ढोंग करने वाले अमेरिका की इस करनी पर दुनिया भर में थू थू हो रही है.अमरीका का पड़ोसी क्यूबा भी  अमरीका के न्याय का भुक्तभोगी रहा है.क्यूबा के राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो की इस मामले पर ताज़ा टिप्पणी-(इन्फार्मेशन ऑन क्लीयरिंग हाउस से साभार )



आतंक का ये कैसा खात्मा !!
By Fidel Castro

 Those
persons who deal with these issues know that on September 11 of 2001 our people expressed its solidarity to the US people and offered the modest cooperation that in the area of health we could have offered to the victims of the brutal attack against the Twin Towers in New York.
We also immediately opened our country’s airports to the American airplanes that were unable to land anywhere, given the chaos that came about soon after the strike.
The traditional stand adopted by the Cuban Revolution, which was always opposed to any action that could jeopardize the life of civilians, is well known.
Although we resolutely supported the armed struggle against Batista’s tyranny, we were, on principle, opposed to any terrorist action that could cause the death of innocent people.  Such behavior, which has been maintained for more than half a century, gives us the right to express our views about such a sensitive matter.
On that day, at a public gathering that took place at Ciudad Deportiva, I expressed my conviction that international terrorism could never be erradicated through violence and war.
By the way, Bin Laden was, for many years, a friend of the US, a country that gave him military training; he was also an adversary of the USSR and Socialism.  But, whatever the actions attributed to him, the assassination of an unarmed human being while surrounded by his own relatives is something abhorrent. Apparently this is what the government of the most powerful nation that has ever existed did.
In the carefully drafted speech announcing Bin Laden’s death Obama asserts as follows:
“…And yet we know that the worst images are those that were unseen to the world. The empty seat at the dinner table. Children who were forced to grow up without their mother or their father. Parents who would never know the feeling of their child’s embrace. Nearly 3,000 citizens taken from us, leaving a gaping hole in our hearts.”
That paragraph expressed a dramatic truth, but can not prevent honest persons from remembering the unjust wars unleashed by the United States in Iraq and Afghanistan, the hundreds of thousands of children who were forced to grow up without their mothers and fathers and the parents who would never know the feeling of their child’s embrace.
Millions of citizens were taken from their villages in Iraq, Afghanistan, Vietnam, Laos, Cambodia, Cuba and many other countries of the world.
Still engraved in the minds of hundreds of millions of persons are also the horrible images of human beings who, in Guantánamo, a Cuban occupied  territory, walk down in silence, being submitted for months, and even for years, to unbearable and excruciating tortures.  Those are persons who were kidnapped and transferred to secret prisons with the hypocritical connivance of supposedly civilized societies.
Obama has no way to conceal that Osama was executed in front of his children and wives, who are now under the custody of the authorities of Pakistan, a Muslim country of almost 200 million inhabitants, whose laws have been violated, its national dignity offended and its religious traditions desecrated.
How could he now prevent the women and children of the person who was executed out of the law and without any trial from explaining what happened? How could he prevent those images from being broadcast to the world?
On January 28 of 2002 the CBS journalist Dan Rather reported through that TV network that on September 10 of 2001, one day before the attacks against the World Trade Center and the Pentagon, Osama Bin Laden underwent a hemodialysis at a military hospital in Pakistan.  He was physically unfit to hide and take shelter inside deep caves.
Having assassinated him and plunging his corpse into the bottom of the sea are an expression of fear and insecurity which turn him into a far more dangerous person.
The US public opinion itself, after the initial euphoria, will end up by criticizing the methods that, far from protecting its citizen, will multiply the feelings of hatred and revenge against them.

मंगलवार, मई 3


अमेरिका की रक्षा करने वालों को सलाम ओबामा कहते हैं . हमें तो यह कहना पड़ता है कि जो अमेरिका से दुनिया की रक्षा करे उसे सलाम !!



         यह कहना कि आई. एस. आई. को ओसामा के छिपने की जगह पता थी और पाकिस्तान ने उसे अमेरिका से छिपाए रखा यह तो अब बच्चे भी जानते हैं कि दुनिया में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. की क्या हैसियत है और सी.आई.ए. और आई.एस.आई. में कौन एजेंसी ज्यादा ताकतवर ,कुशल और सुविधा संपन्न है .जो सी.आई.ए. दुनिया के किसी भी देश के नागरिक के बाथरूम तक की खबर रखती है,जो अमेरिका किसी भी देश में अपनी फौजें घुसाकर हमला कर सकता है,क्या आई.एस.आई. और पाकिस्तान की हैसियत उससे बड़ी है ? सी.आई.ए. के सामने आई.एस.आई. और अमेरिका के सामने पाकिस्तान की क्या औकात है ? जब अमेरिका ने अपने फ़ौजी अड्डे पाक में बना लिए, अमेरिकन फ़ौज और सी.आई.ए. खुद ही पाक में घुसी हुई है तो अब इस थ्योरी को गढ़ना बेतुका है कि आई.एस.आई. को सब पता था और अमेरिका को नहीं !
        अमेरिका ने ही तालिबान को खड़ा किया पूर्व सोवियत संघ को तोडने के लिए अमेरिका ने इस तरह की कमजोर साम्प्रदायिक आवाजों को हथियार  और पैसा देकर मजबूत बनाया , उन्हें तालिबान के रूप में पहचान दी . सोवियत संघ के टूटने के बाद भी दक्षिण एशिया में अपने सैनिक अड्डे बनाकर इस डर को भुनाया. अमेरिकी अर्थव्यवस्था मुख्यतः हथियारों, ड्रग्स और सेक्स पर ही चलती है. दुनिया में आतंकवाद का डर पैदाकर अमेरिका ने खरबों डालर के हथियार बेचे, दुनिया भर में अपने सैनिक अड्डे बनाए , तमाम देशों में अमेरिकापरस्त सरकारें बनवाईं और अमेरिकी कंपनियों को कई निवेश, कहीं विकास, तो कहीं पुनर्निर्माण के नाम पर घुसाया. अमरीका से बड़ा आतंकवादी कौन है जिसकी मर्जी के बिना दुनिया में पत्ता तक नहीं हिलता और जो पूरी दुनिया में तबाही ढा रहा है, दुनिया में आतंकवादियों ने जितने लोगों को मारा है उससे हजार गुना ज्यादा जानों का खून अमेरिका के दामन पर दर्ज है

दूसरी बात दाउद इब्राहीम ओसामा जैसा आतंकवादी नहीं, वो अंडरवर्ल्ड सरगना, ड्रग्स और हथियार का अंतर्राष्ट्रीय माफिया है. और उसे पनाह देने वालों में अमेरिका भी रहा है. भारतीय मीडिया जबरदस्ती खबर को दमदार बनाने के लिए दाउद को कब पकड़ोगे ? जैसा सवाल पेश कर रहा है. अमेरिका अगर ड्रग्स और हथियार माफिया का डायनासोर है तो दाउद उसके सामने चीटी की तरह है . सारे गंदे धन्धो की जड़ें और खाद पानी अमेरिका में ही है.

मीडिया लगातार उकसा रहा है कि जैसे अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मार गिराया वैसे ही अमेरिकन फौजों की अगुवाई में भारतीय फ़ौज को पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए. अमेरिका दुनिया के सभी आक्रमणों का अगुवा है और यह बात भी अमेरिका के ही हित में है कि जैसे आतंकवाद से युद्ध के नाम पर पाकिस्तान अमेरिका की मुट्ठी में चला गया वैसे ही भारत भी पूरी तरह अमेरिका की कठपुतली बन जाए .

         दाउद के खिलाफ बोलने वालों में वही बालीवुड सबसे आगे है जहाँ के रुपहले परदे के पीछे काली दौलत की कालिख पुती हुई है. इन्हीं अंडरवर्ल्ड सरगनाओं के काले पैसे से करोड़ों के बजट की फ़िल्में बनती हैं. क्या दाउद की कालिख में बालीवुड का कोई हिस्सा नहीं ? दाउद मर गया तो बालीवुड की कालिख का पता कौन बताएगा ?
          दाउद को गोली मारने से पहले बालीवुड के चमकीले चेहरों से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि एक फिल्म पर करोड़ों स्वाहा करने के लिए इतना इफरात पैसा आखिर किन तिजोरियों से आता है ?
         हम न ओबामा/अमेरिका साथ हैं न ओसामा/आतंकवाद के साथ . दुनिया का नुकसान तो ये दोनों ही कर रहे हैं फर्क यही है कि पहला अपने हित में  कानून बनाकर दुनिया भर में हमले कर रहा है, अपनी बड़ी पूँजी घुसाकर तमाम देशों के उद्योग-धंधे और खेती  तबाह करके करोड़ों लोगों को गरीबी और भुखमरी के समुद्र में धकेल रहा है तो दूसरे को कानून की कोई जरूरत नहीं है . दुनिया के खिलाफ अपराध में आतंकवाद , अमेरिकन साम्राज्यवाद की  फितूरी और नाजायज औलाद है. दुनिया की बर्बादी के लिए ये दोनों ही ज़िम्मेदार हैं .

अमेरिका की रक्षा करने वालों को सलाम ओबामा कहते हैं . हमें तो यह कहना पड़ता है कि जो अमेरिका से दुनिया की रक्षा करे उसे सलाम !!

सोमवार, मई 2


  न्याय का सपना और अदालतों का सच

(भैलोनी लोध,ललितपुर के रहने वाले मंगल सिंह एक साधारण हिन्दुस्तानी किसान हैं,जिनका पूरा ध्यान खेती और उसको बेहतर बनाने वाली तकनीकों पर रहता है.मंगल सिंह ने एक महत्वपूर्ण आविष्कार किया है मंगल टर्बाइन का ,अपने आविष्कार और भ्रष्टाचार से उनके संघर्ष की एक अलग ही कहानी है,जिसके बारे में इस ब्लॉग की आगामी पोस्ट में विस्तार से चर्चा की जायेगी.फिलहाल संक्षेप में यही कि तमाम हिन्दुस्तानी किसानो की तरह यह किसान भी न्यायपालिका की चौखट पर न्याय की उम्मीद में खड़ा है. न्यायपालिका से जुड़े अपने अनुभवों को उन्होंने इस लेख में हमसे साझा किया है.यह पोस्ट हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में उन्होंने लिखी है जिसे हम उन्हीं की भाषा में दे रहे हैं.)


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JUDICIARY : CHALLENGES AND THE DREAMS OF LITIGANTS

  Glancing at the history, we found that the towering leaders of our freedom moment and the galaxy of interactuals gathered to give our country a Constitution. The solemn document which 'we the people' gave us to ourselves provided and establish the high principle of equality, fraternity, liberty and brotherhood. The Constitution lead the edifice of legislature and executive and also provided separate entreaty of judiciary under Chapter IV Article 124 the Constitution established the Supreme Court and under Chapter VI, Article 214, the High Courts came into being and under Chapter VI, Article 223, the lower courts at the district and mofussil level were created. These courts of records had the great responsibility of providing justice to the teaming millions of the country who had awaken at the dawn of liberation of the country and who were hopeful of rapid transformation of the social and economic structure. The large sections of the Indian masses were hopeful that the courts will give them a life with dignity and justice. Decades after, a commission established by the Central Government and known as the Arjun Sengupta Commission has revealed the fact that 70% of the Indian households have a daily income of not more than Rs.20/- and more than half of the population of the country are half fed and semi naked. The children are mal nutritious.  It was quite opposite to the dreams and aspirations of our forefathers and builders of the nation. It was visioned that the justice delivery system will be easy, accessible and cost friendly. There was an all India structure of courts system from the lower court to the Supreme Court. After passing of the three decades, our constitutional experts felt that the courts are not meeting out the requirement of the people and the balance between the need of the litigant and the justice delivery system is wavering and consequently, the arrears of cases started piling up. The problems were discussed and it was decided that some alternative forums may be created to do justice to the dreams of the Indian masses who freely want to knock the door of courts to get justice and under these circumstances, the 42nd amendment in the Constitution was done and a new chapter 15A was added in the Constitution and by the virtue of Article 323A and 323B, TRIBUNALS emerged from the horizon of the Indian Constitution and now it is signing at a 50 steps mansion. The Tribunals are not only a means of dignified livelihood to numerous law graduates but it is a source of delivering justice to huge number of litigants and aspirants.
            Before scanning the problems and the challenges of the Tribunals, we must glance at the glides of the Supreme Court and High Courts. On the basis of the records which the government and the court system provides.
            At the present time, there are more than 14000 posts of the judges in the entire country from Tehsil to New Delhi. 29 posts of justices in Supreme Court, 725 posts of justices in 21 High Courts and 14777 posts of judges in the Lower Courts are sanctioned.  The present situation shows that out of 725 posts, 585 justices are at present working in High Courts and out of 14777 judges, 11139 are functioning in the lower courts.  According to the records given by the Ministry of Law in 1999, the 21 High Courts of the country were disposing and deciding 9.80 lacs cases and in 2006, they started deciding 14.50 lacs cases per year and it may be said that the percentage of disposal increased to the tune of 50% but on the other hand wherein 1999, the rate of filing of cases per year was 11 lacs which sizably increased in 2006 to the tune of 16 lacs cases per year and resultantly wherein 1999, there was backlog of 27.5 lacs cases, in 2006 the arrears increased upto 36.5 lacs cases. After 2006, the situation further worsened and the rate of filing of cases increased from 1.27 crores to 1.56 crores upto year 2008 and now the entire arrears of cases pending before the Supreme Court and High Courts are about 2.48 crores which are kissing the dusts in the office of the Registry and waiting for their final funeral. At this juncture, we cannot keep out of sight, the glaring fact which propounded in the Advocates on records case by Supreme Court that the review of strength of judges must be made in Supreme Court and High Courts and the strength must be increased periodically but on the contrary, if we open the sight of Allahabad High Court, we will see that the sanctioned strength is 160 and the working strength is 70 in the second week of January 2011. I may be permitted to suggest that this is the right time when we must think that the strength of the members of the Tribunals should also be increased with added and elevated powers and the nature of work deputed to the Tribunal should also be widened.
            We must also examine the attitude of the government towards judiciary through budget facility and infrastructure allocation.  In the 8th five years plan (1992-1997), the entire judiciary of the country were given 110 crorer, in the 9th five years plan, a sum of Rs.385 crore was provided to the judiciary which was 0.07% of the entire 5th year plan budget of Rs.5,41,207 crores. In the 10th five years plan (2002-2007), the judiciary of the country was earmarked for Rs.700 crores which is only 0.078% of the entire plan budget of 8,93,183 crores. Does not it show that the legislature is trying to weaken the judiciary and to make it always staggering. The Government does not want to include judiciary in the planned development of the country.
            The law commission's 120th report says (1987), there was a ratio of 10.5 judges on 10 lacs population which increased upto 12-13 judges on that population and this data gives a logic towards that if the requirement of increasing the number of judges is correct, then it is the high time that the restructuring of the Tribunals should also be done rapidly. On 31.01.1987 in its 120th report, the Law Commission aspired that there should be 107 judges in the population of 10 lacs people in country, the ratio which the United States of America already achieved in 1981. I hope that in the same ratio, the members of the Tribunals should also be increased.
            At the present state of affair, to fulfill the dreams of the people and to provide justice to the litigant, it is the demand of the day that the arm of the Tribunals should not only be enlarged but it should be equally strengthened.  It is the sorry state of affair that the Tribunals has still not attend the status of the court as provided in the Indian Constitution, Civil Procedure Code and Criminal Procedure Code and this lacuna and weakness tried to minimize its strength. It is to be reviewed that the protection of Human Rights Act came into being in 1993 which not only gives power to Supreme Court and High Courts under Article 32 and 226 to deal with the cases of the human right violation but under section 30 Chapter VI of the Act, the power is conferred to a Session Court at district level to human right court and on the contrary, the Tribunals are denuded of these powers and at the golden jubilee functions, we must desire and demand that not only the other matters and disputes should be included in the power of the Tribunals to decide but the human right violation cases should also come in the purview of Tribunals.
            There have been many alternative redressal forums envisaged and visioned by our law makers in the path of history of judicial reforms. In 1982 Lok Adalats were formed and from 1982 to 2000, 13761 Lok Adalats were performed in the country which decided 57,38,000 cases. Likewise there are arbitration, Nyay Panchayat, Mediation and Reconciliation Centres spread throughout the country as an alternative forums to decide the cases and to minimize the arrears but it is not giving the satisfactory results and this is the high time when we must consider the recommendation of the parliamentary sub committee which amended the certain provisions of the Legal Services Authorities Act in 1994 and 2002 that the Tribunals are the wheels whereby we may take forward the journey of justice towards a happy end. It is a accepted fact that million of money are being used and wasted to create new forums of justice delivery mechanism whereas our Tribunals are not being provided enough budged to spread its infrastructure where our Advocates can sit, study, make counseling and prepare briefs. It is the time when the system of modern technology with a high sensitive data base should be introduced in the premises of the Tribunals and a e-library should be established in all the Tribunals so that we can go through the judgments and the orders day to day wise which are being given in the different Tribunals of the country. It is the time when we can demand that the Hon'bles who are delivering justice in Tribunals should not be named as only Member but they should be given the name of judges and justices with the similar power and privileges.
             
                                                                                    Mangal Singh
                                                                    Agriculturist and Inventor