अगर आप भट्टा पारसौल की विडंबना से वाकिफ हैं तो आप इस कहानी को समझ सकते हैं. यही कहानी टप्पल की हो सकती है,यही करछना की ,,गंगा एक्सप्रेस वे की और अब यमुना एक्सप्रेस वे की. इन कहानियों के पात्रों के नाम और स्थान अलग हो सकते हैं ..समय भी थोड़ा बहुत अलग हो सकता है...पर पीड़ा एक ही है..तकलीफ एक ही है ..दर्द एक सा है और संघर्ष के स्वर भी एक से हैं. सब छल के शिकार हुए हैं.भट्टा पारसौल में सड़क बनाने के नाम पर खेती की ज़मीने सरकार ने कौडियों के दाम लेकर बिल्डरों को दीं और बिल्डर इन ज़मीनों को सोने के भाव बेच रहे हैं.और प्रभावित किसान चकित होकर “अपनी सरकार ”की ये कारस्तानी देख रहा है.
ग्रेटर नोएडा के करीब बन रहे यमुना एक्सप्रेस वे से प्रभावित किसानों के आंदोलन से आखिर क्या सबक मिलता है? चार माह से जो लोग शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात कह रहे थे. पहले आवेदन, फिर प्रतिनिधिमंडल ले जाकर मिलना ,अधिकारियों के रोज चक्कर लगाना , रोज तर्क दिया जाना , किसी बड़े अधिकारी , जिम्मेदार अफसर नेता से बात तक न हो पाना , करते-करते चार माह बीत गए- अपनी बात कहने का फिर क्या रास्ता होना चाहिए? क्या अनशन, धरना, सुनवाई तभी होगी जब खुद अन्ना हजारे बैठेंगे – बाक़ी जनता को यूँ ही दर्द से तडपने कराहने के लिए छोड़ दिया जाएगा .(अब यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने वाले अन्ना हजारे, बाबा रामदेव जैसे महापुरुषों ने मारे गए किसानों के घर जाकर सांत्वना तो दूर सहानुभूति का एक बयान तक नहीं दिया !!! इन बुनियादी सवालों पर इनकी बोलती क्यों बंद है ?)
ये बातें रोज की हैं – तंत्र इस कदर संवेदनहीन हो चुका है कि अब तो खुद अपने ही ईमानदार और संवेदनशील आदमी को भी नहीं बख्श रहा. ईमानदार अफसर हो, इंजीनियर हो या ईमानदार नौकरशाह – तंत्र के भ्रष्ट ठेकेदारों के षड्यंत्र का शिकार हो रहा है.... यह क्या हो रहा है? तमाम दफ्तरों में प्रभावितों की एप्लीकेशंस के अम्बार लगे हैं – गाँव, शहर से लेकर राजधानियों तक जनता आंदोलनरत है. पर कहीं कोई सुनवाई नहीं . भूले भटके सुनवाई हो भी जाए तो बेनतीजा . कहीं न्याय मिले भी तो इतनी देर में कि न्याय के मानी ही खत्म हो जाय – न्याय खुद ही अन्याय से बड़ा नजर आने लगे.
ऐसे में क्या कहा जाए ? क्या सांत्वना दी जाए? जनता के प्रदर्शन अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो सत्ता हिंसा की ओर बढ़ रही है – जनता का धैर्य चुक रहा है. अन्याय को सहने की शक्ति जवाब दे रही है. पुलिस, सेना भी लाठी गोली के साथ तैयार है असहमति की हर आवाज को नेस्तनाबूत करने के लिए.
सवाल यही है कि क्या अब हिंसा ही एकमात्र उपाय है?अपने ही लोगो पर ,अपनी चुनी सरकार की लाठियां ,गोलियाँ बरस रही हैं.जिन किसानो के वोट से सरकार बनी आज उन्हीं को सरकार अपराधी बता रही है और हद तो ये कि उस पर इनाम तक घोषित करने में कोई शर्म नहीं ! गोलियाँ किसी दाउद इब्राहीम पर नहीं बल्कि अपने ही किसानो पर दागी जा रही है... ज़मीने हथियाने का सरकारी लालच यहाँ तक बढ़ा है कि गाँवों में खेतियाँ किसानो के लहू से लाल हो चुकी है.
भट्टा पारसौल को जाने वाली हर न्यायपूर्ण, सहानुभूति की आवाजों को क्यों रोका जा रहा है ?वहाँ जाने के रास्तों पर पहरे क्यों हैं ? गाँव वाले अपने घरों से किसके खौफ से भागे घूम रहे हैं ? असहमति की आवाज़ सुनने का साहस सत्ता में क्यों नहीं है ? क्या कोई सुनवाई का , सच का, न्याय का, अब कोई रास्ता नहीं बचा ??