मंगलवार, जनवरी 5

मैं हूँ मानवी

मैं हूँ 
समर्पण है ,समझौते हैं ,
और तुम हो बहुत करीब 

मैं हूँ 
हँसी है ,खुशी है 
और तुम हो नजदीक ही

मैं हूँ 
दर्द है ,आंसू है ,
तुम कहीं नहीं 

मैं हूँ मानवी 
ओ सभ्य पुरुष !!
      --संध्या नवोदिता

29 टिप्‍पणियां:

  1. मैं हूँ मानवी
    ओ सभ्य पुरुष !!

    बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  2. बेहतरीन ! प्रस्तुति का आभार !

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  3. नवोदिता जी ,' मैं ' शब्द जहां भी सृष्टि में आ जाएगा वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भले ही बाधित न हो किन्तु 'मानवी' होने का जैसे दंभ ज़रूर दिखायी देगा . स्वाभिमान तक तो ठीक है किन्तु अहंकार का भाव इंसान को दुनिया की तमाम खूबसूरत चीजो से इतर कर देता है . अगर ये मैं ' अहम् ब्रह्मास्मि जैसा है तब तो ठीक किन्तु अगर उसमे दोनों समानांतर दुनियावों का दीर्घ व्यापार नहीं है तो वह सिर्फ अहंकार तक सीमित होकर रह जाएगा

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  4. सत्य के दो धरातल में एक है 'पुरुष ' . दूसरा जिसे आप 'मानवी' कह रही हैं . दोनों बिना किसी अंतर्द्वंद्व के अस्तित्व में बने रह सकते हैं और अंतर्द्वंद्व के साथ दो अस्तित्वों का मेल तो हो सकता है किन्तु दो भिन्न भिन्न पृष्ठभूमी में रहकर जीते हुए ' पुरुष 'और ' मानवी ' इतर अस्तित्व को लेकर पृथक पृथक सृष्टि में विचरण नही कर सकते . दोनों एक दूसरे के सहचर तो हो सकते हैं मगर बिना एक के दूसरे का कोई पृथक अस्तित्व संभव नहीं है .

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  5. हाँ एक बात और है - ब्रह्म से मेरा तात्पर्य किसी पुरुष नामक अस्तित्व से नहीं है बल्कि ब्रह्म का अर्थ है ' परम ऊर्जा '. जो सनातन से अद्यतन और अंत तक की यात्रा में समाहित है . उसमें स्त्री या पुरुष का भेद नहीं है . दोनों अस्तित्व में यह ऊर्जा समानांतर ही प्रवाहित हो रही है . चाहे वह पाणिनि हो या कालिदास .

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  6. भाई मेरी कवीन्द्र जी से सहमति नहीं

    मानवी होने का अहंकार नहीं इस कविता में मानवी होने का एक बोध ज़रूर है जो शायद एक मानव की तलाश के साथ संपूर्ण होना चाहता है।

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  7. अजीब बात है ,एक तरफ समर्पण और समझौतों के साथ करीब होने का हलफनामा ,दूसरी तरफ आंसू और दर्द से जुड़ा एकाकीपन !अगर समझौतें हैं तो एकाकीपन है |फिर इस पर सभ्यता असभ्यता का अंतर स्पष्ट करने की क्या आवश्यकता ?मानवी शब्द में दंभ परिलक्षित हो रहा है |क्षमा के साथ कहना होगा ये कविता नवोदिता की कविता नहीं है ,

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  8. Trace of feminism has distorted the beauty of poem. There is certain ambiguity in her approach because she passes a remark on the men community at large even as she talks about her personal problems.One wonders how failures in few personal relationship allow one to enter in generalizations- ओ सभ्य पुरुष ?

    [PS:Extremely sorry for posting the comment in English.I am still not very comfortable with Hindi typing.Above all, constraints of time do not permit me to spend few extra minutes.]

    Okay there are some corners in one's being that very few can intercept. They can be intercepted only through perfect intimate relationships. If you have not been able to locate one such individual that doesn’t mean there is dearth of better individuals. How can failure to search qualified individuals allow one to put all the men in dock?

    It's also time for the author to realize that life is name of compromises. There is no relation on earth that’s devoid of pains, compromises and setbacks. That's life my dear friend Navodita. What's so special if a woman enters in compromises? Any answers Navodita ?

    Interestingly,she,like all of us, knows quite well that compromises are integral part of human life yet she finds something very unique about compromises made by woman!!

    Anyway,the author is in grip of heightened emotionality or sharper individualism.That’s bound to leave her in pool of frustration and pain.

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  9. bhaai aavesh jii kavita men kahin bhi kariib hone halafnaama nahi hai balki prem ki samvedniyata zaruur hai . prem men dvandv ki sthiti nirantar bani huii hai islie kavita men do bhinn bhinn vyaktitv ek duusarew ke saath sanvaad sthaapit karane ke lie ek taraf pratibaddhata se bhare hain dusarii taraf dono vyaktitv ke samaksh apane apane astitv ko banaae rakhne ka bodh bhi saaf nihit hai mere puurv likhit kathan men aarop nahi kavi ke sath baraabari ke darje par dono vyaktitvon ki chhaanbiin ki mukhaalafat ki gayi hai

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  10. सुन्दर अभीव्यक्ति ।

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  11. कविता कोई सैद्धान्तिकीय तो है नही . न ही किसी सिद्धांत का प्रतिपादन करती है . कविता व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व में बाहरी दुनिया के व्यावाहारिक पक्ष का प्रतिपादन करती है या उसकी ही अनुभूतियों से गुजरकर बाहरी सत्य की अभिव्यक्ति है. तो जब मैं कह रहा हूँ कि कविता कोई सिद्धांत नही है न ही सैद्धान्तिकीय . तो मेरा कहने का मतलब है कि कविता में किसी भी प्रकार से 'विकृत नारीवादी विमर्श या सिद्धांत ' के सेट ऑफ रूल्स को भी कविता फोलो नहीं करती . कवि के निजी अनुभवों में नारीवादी सौन्दर्य या उससे सैद्धांतिक पक्ष से उपजी विकृति कहना , आप ही बताएं कितना उचित होगा ? हर इंसान अपने जीवन में गुड , बेटर , बेस्ट , की तलाश ज़रूर करता है.लेकिन यह करते हुए वह जब एक कवि की भूमिका निभा रहा होता है तब उस पर एक नैतिक जिम्मेदारी होती है - सिर्फ व्यक्तिक (indivisual), न होकर समाजवादी दृष्टि को पाठक के समक्ष रखने की . और कवियत्री नवोदिता ने इस प्रक्रिया में न बेहद जज्बाती होकर लिखा , न ही बिना किसी जल्दबाजी के . बल्कि बेहद संजीदगी और संयम से बाहरी दुनिया के व्यावाहारिक पक्ष को अपनी संवेदना के जरिये उजागर किया है .
    मैं क्षमा चाहता हूँ अरविंद जी ,यह कहते हुए कि आपकी दृष्टी विचार और लेखन में अभी काफी अपरिपक्वता है . कृपया कविता की मूल संवेदना और सत्य के व्यवहारिक पक्ष को परिपक्व दृष्टी से आंकलन करें .

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  12. nice one..
    Really amazing..
    Very good and beautiful Poem....
    Heart toching....

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  13. Wonderful, Senitive and very much impressive. I got some clear funny images. The last two lines were good. A brilliantly rendered and innovative poem that can bring any bad day back to a smile. Loved it.

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  14. @Anil Puskhker

    Let's agree to diasgree !!No offense to anyone,I wish to state that anything written in a forced manner is not a poem at all.How come the poem that lays stress on heightened individualism place in right perspective socialistic tendencies? Above all,I appreciate the poem.

    However,just feel that she has deviated away from her natural instincts in an attempt to incorporate " समाजवादी दृष्टि".

    Having full respect to your views Pushkerji,I stand by my stand.It's poem not in a true sense.It's a poem that lacks balance and if you say that poet has tried to strike a balance or,for that matter,tried to bridge the gulf between demands of inner and external world then I must say she lacked the desired sincerity and desired experience.Somthing is missing.It's either "experience" or "sincerity".Or both ? In essence,I appreciate the poem but to be very honest the poem brutally murders the term "naturalness".I am not intesrested in keeping the poet in dark so just said the way I felt.Apparently:A good poem.Critically:A Flawed Poem.

    Have a look at this well known poem by Rabindranath Tagore.And notice the letter "I" in it.Compare it with "I" of Navodita.The "I"of Navodita smacks of individalism.No doubt she has tried to imbibe socialistic concerns but has she emerged successful in it.The answer is emphatic "NO" !!

    "जैसे सब लिखते रहते हैं ग़ज़लें, नज्में, गीत
    वैसे लिख लिख कर अम्बार लगा सकता था मैं"

    (इफ्तिखार आरिफ)

    ....It's time for Navodita to heed to the essence in the lines of Aarifji.Period.



    Lastly,let me thank you Pushkarji for taking note of my view in such a conscious way.Nothing personal with either you are with Navodita.Navodita is a very refined soul.I just can't tolerate imperfection in her and for that sake I am ready to flow against the current.In other words ready to differ with the opinion of the majority.Above all, I have never followed the beaten track.I am not going to do that even now !! Once again :No offense to anyone.

    **********************************

    Let me not pray to be sheltered from dangers but to be fearless in facing them.

    Let me not beg for the stilling of my pain but for the heart to conquer it.

    Let me not look for allies in life's battlefield but to my own strength.

    Let me not crave in anxious fear to be saved but hope for the patience to win my freedom.

    Grant me that "I" may not be a coward, feeling your mercy in my success alone; but let me find the grasp of your hand in my failure.

    (Tagore)

    ********************************************

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  15. साथी अरविंद जी , How come the poem that lays stress on heightened individualism place in right perspective socialistic tendencies? का जवाब यही है
    हमने माना कि मौजे समंदर का आब खारा है
    जाने क्यूँ सांसें लौट बार बार वहीं आती है .
    मैं अपनी बात फिर से दोहराना चाहूँगा कि कविता अपने पूरे परिवेश में कहीं भी व्यक्तिवाद का शिकार नहीं हुई है उसमें एक समाजवादी दृष्टी सर्वदा निहित है . आप कविता को उसके यानी कवि के निहित अनुभवों के आधार पर देखें न कि कवि के साथ जीवन में वैसा ही घट रहा है जैसा कविता में घटित हुआ. इस भ्रम से हमेशा कविता की रक्षा करनी होगी , ये आलोचक का परम धर्म है . याकि पाठक की नैतिक जिम्मेदारी है . आप एक आदमी की natural instincts यानी नैसर्गिक वृत्ति को परखने का दावा नहीं कर सकते . सिर्फ एक अंदाजा भर ही लगा सकते हैं . क्यूंकि कविता रचे जाने के समय कवि निहायत गूढ़ सामाजिक संरचना के बेहद करीब होता है बजाय व्यक्तिक प्रवृत्तियों के . कविता के शब्द उस वक़्त कविता लिखने वाला व्यक्ति नहीं तय करता बल्कि कविता अपने भीतर चल रही उथल पुथल को कवि के जरिये लिखने वाले व्यक्ति के द्वारा लिखवाने पर मजबूर करती है . उस वक़्त कवि , लिखने वाला व्यक्ति और कविता तीन भिन्न भिन्न चरित्र होते है . तीनों अलग अलग धरातल पर होते हुए भी अपने अपने अनुभवों की , अनुभूतियों की , विचारों की , ख्याल में उपजी चेतना , अवचेतना , अचेतन के भीतर पड़े हुए संवेदना के पुर्जे उठाकर उन्हें नए सिरे से जोड़ने की कोशिश करते हैं अगर ये संवेदना की शिराएँ ज़रा भी इधर उधर गलती से हो गयी तो कवि अपने नैसर्गिक शल्य क्रिया में कविता की हत्या कर देता है . अगर वो सफल हुआ तो कविता उस रूप में सामने आती है जैसे 'मैं हूँ मानवी ' कविता . जिस पर हमारी आपकी जद्दोजहद इस तरह जारी है ज्यों हम कविता को कितना प्रेम करते हैं इस बात को सिद्ध करने के लिए अपने अपने तर्क लगातार कविता के पक्ष विपक्ष में दे रहे हैं . अगर कविता अपने शल्य क्रिया में असफल होती तो ये मुद्दा हमारे आपके बीच बहस का कतई न होता .

    मैं इन अर्थों में उस कवि को धन्य मानता हूँ कि कविता रचे जाने के वक़्त कवि और उसके साथ लिखने वाला व्यक्ति दोनों ही कविता को इस दुनिया के अस्तित्व के समक्ष एक नए सृजन या नए अस्तित्व को कविता 'मैं हूँ मानवी' की नयी प्रतिस्थापनाओं के साथ तमाम माध्यमों के जरिये लाने में सफल हुए.

    'i' इस कविता में अपने भीतर के दो रूपों को सामने लाता है एक 'I' है- जिसमें वो सभ्य पुरुष के समझौते और समर्पण के साथ जीता है तब वो अपने सृजक भाव को सभ्यता और पुरूष के अधीन रखकर अपनी संवेदनाओं का क्रिया व्यापार कर रहा है वह बहुत नजदीक है सभ्य पुरुष के . और यही 'I' जब अपने अस्तित्व में इसी सभ्यता और पुरुष के साथ होने के कारण अपनी खुशी उसमें देखता है जो सभ्य पुरुष है . उस वक़्त भी उस 'I' का सृजक रूप एक दूसरी सत्ता के अधीन ही है . तब वह 'I ' प्रतिपक्ष सत्ता के साथ संवाद होने की स्थिति में 'तुम हो नजदीक ही' कहता है . किन्तु जब यही 'I' अपने पूरे वजूद के साथ सभ्य कहे जाने वाले पुरुष और उसकी सभ्यता के साथ नही उसके समक्ष अपने सृजनात्मक अस्तित्व में होता है तब उससे (तुम) के साथ संवाद स्थापित करता है . इस संवाद में उस दूसरे 'i' का आत्म या स्व निहित है . इस आत्म के समक्ष वह पाता है कि वह पुरुष सत्ता के साथ होकर भी उसके मनोनुकूल नही होने के कारण उससे अलग उसका अस्तित्व है . जहां वह अपनी प्रतिपक्ष सत्ता के समानांतर अपने आत्म के साथ जीता है . वहां वह कहता है 'तुम कहीं नही' .

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  16. @Pushkar

    Posting a comment only to appreciate your efforts in unfolding elements associated with the poem.I really thank you from core of my heart for bringing in open technicalities involved in making of this poem along with the intricacies involved in it.The moot question is that has the poem really been successful in projecting the perceptions inherent in your last response? Pushakrji,it's not that I didn't feel the said currents which you have so painstakingly referred to in this response.Who is denying the presence of features involved in making of a poem? It's a good poem .I have already said that.But an "X" factor is missing !! The "X" factor that makes the poem complete.Something is terribly missing. What's that factor?

    I am afraid explanations by me will not give the right impression.If I do so it will definitely send wrong signals that I am compelling others to recognize that "X" factor or,for that matter,I am making others subordinate to my rigidity in this regard.

    I will not say anything about it.Let it remain unresolved.Let other readers read it and try to find out that,if they can.I am sure that "X" factor is not beyond the reach of sensible readers.Fortunately,there is no dearth of sensible readers and writers on this forum and elsewhere.Anyway nice talking to you Pushkarji.It's my last response as I feel nothing left for me to say anything in this regard.

    वोह अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
    उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा (साहिर)

    .....Arvind K.Pandey

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  17. साथी अरविन्द जी ,
    हर सफ़र का एक अंत है और हर अफ़साने की एक मंजिल . यूं ही बीच में छोड़ जाने को क्या समझें -------------

    हुआ करे वो जीस्त ऐ तन्हाई में यूं ही शामिल मगर
    दगा करे मझधार में ज़ालिम रुसवा कहे के रुखसत .

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  18. @Pushkarji

    अरे जनाब हम आप को कहा छोड़कर भागे जा रहे है ..हम तो यही है आप के पास ...दगा देना मेरी फितरत में शुमार नहीं पर क्या करे और भी ग़म है ज़माने में टिप्पणी देने के अलावा...और क्या खामोशी अपने आप में एक और जवाब नहीं है ? जो अभी मेरे दायरे में आ रहा था कह चुका शब्दों के रूप में ..अब निराकार टिप्पणी हाज़िर है ...खामोशी :-))

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  19. It's also time for the author to realize that life is name of compromises

    भाई इस बात से जो सहमत हो वो सब कर सकता है पर कविता नहीं लिख सकता। कविता का जन्म ही असहमति और असुविधा से होता है।

    विचारधारा चाहे नारीवाद या फिर समाजवाद या कोई और कविता मे दाल की चौंक की तरह नहीं डाली जाती यह कवि की विचार पद्धति से अपने आप दाल मे नमक की तरह घुलमिल जाती है। सर्वत्र उपस्थित पर दृष्टिगोचर कहीं नहीं।

    कविता की तकनीक? मेरी नज़र में सबसे बड़ी बकवास! कोई ऐसा वैलिडिटी टेस्ट नहीं बना जो कालिदास से नवोदिता तक सब पर लागू हो सके। कौन तय करेगा कि कविता यह है कि नहीं? सिवाय समय और पाठक के कोई और नहीं। अगर एक रचना गहरे तक पहुंचती है और बिना विस्तार दिये आपके मन में एक टीस पैदा कर जाती है, आपकी संवेदना को लयात्मक विस्तार देती है तो वह कविता है। और मैंने इस कविता में वह हासिल किया।

    मै एक सच है और दरअसल इस कविता में मै को किसी अमूर्त हम से प्रतिस्थापित करना ज़्यादा मैकेनिकल होता और किसी त्याग वगैरह के सहारे किसी कंप्रोमाईज़ पर पहुंच जाना उससे भी ज़्यादा घातक। लेकिन शायद औरतों से यही उम्मीद की जाती है।

    तुम इन उम्मीदों पर कभी खरी मत उतरना बांधवी!

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  20. साथी अशोक जी ,
    कविता की तकनीक? मेरी नज़र में सबसे बड़ी बकवास! ? आपके इस तर्क से असहमति पर दो शब्द ----
    मैं आपको बचपन की एक कहानी याद दिला दूँ चंद शब्दों में अपनी बात ख़त्म करूंगा कि माँ से उसका बेटा पूछता है - माँ ये बताओ हम कहाँ से आते हैं ?
    माँ कहती है - बेटा भगवान के घर से .

    अब अगर इस कथन को ही बच्चा जीवन भर आँख बंद कर के सच मान ले तो वह स्वयम को प्रजनन की एक सृजनात्मक प्रक्रिया से सदा सदा को कभी नही जोड़ सकेगा . कहने का मतलब ही है कि कविता के सृजन की प्रक्रिया से आप यूं ही आँखें नहीं चुरा सकते . उसे हमें स्वीकार करना ही होगा .

    या फिर एक और उदाहरण से समझिये - एक बार एक दार्शनिक किसी मूर्तिकार के पास गया वो मूर्तिकार अपनी एक विशिष्ट कला कौशल के कारण विश्वभर में विख्यात था . वह कला थी शिवलिंग की मूर्ति बनाने की कला .
    दार्शनिक ने सोचा यह तो मुझसे भी बड़ा दार्शनिक होगा जो इतनी शिद्दत से मूर्ति में जान दाल देता है . क्यूँ न चलाकर उससे शिव और उसके जीवन दर्शन पर बात की जाय . मूर्तिकार से पूछने पर उसे पता चला कि वो मूर्तिकार अपने पिता से इस कला को अपने जीवन यापन या गुजर बसर के लिए पूरी लगन से सीखा था. इससे ज्यादा उस मूर्तिकार को इसके बारे में कुछ पता नहीं था . दार्शनिक यह सुनकर कहने लगा तुम्हे पता है इस शिवलिंग में पुरुष और स्त्री के केवल जननांग ही तो है जिसके समागम की दशा को भगवान शिव की तपस्चर्या कहा गया कि ये भगवान सृष्टि के निर्माण में डूबे हुए साधना में लीन हैं . मूर्तिकार ने सुना तो गीले सने मिट्टी में डूबे हाथ चाक से निकाले और सारी मूर्तियों को गुस्से से तोड़ डाला . और कहा हे राम ये मैं अब तक क्या बना रहा था मैं तो इसे भगवान समझ कर पूजता था उअर लोगो को भी यही पता था . आपने आज मेरी आँखें खोल दी. इतना घृणित काम मैं अब कभी न करूंगा . भगवान मुझे क्षमा कर देना . मुझसे पाप हुआ है . मैं इतनी तुच्छ चीज को भगवान समझ बैठा .
    तो अगर आप कविता की तकनीक को बकवास कहे तब मुझे आपकी नादानी पर आश्चर्य नहीं होगा .
    अंत में एक ही बात कह कर चलूँगा -

    क़र्ज़ की पीते थे मय ये सोचकर कि हाँ
    रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन .

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  21. कृपया उपर के कमेन्ट में चौंक को छौंक पढ़े

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  22. आपने इतने सारे उदाहरण दे डाले!
    काश कि पहले मेरे कमेण्ट को पढ़ लिया होता गौर से।
    मैने तकनीक की बात की है रचना प्रक्रिया की नहीं
    अल्पज्ञ हूं पर इससे गुज़रना होता है अक्सर लिखने की प्रक्रिया में!

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  23. वैसे इस नादान को ज्ञान देने की आपने जो महान कृपा की है तो आभारी हूं!

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  24. साथी अशोक जी,
    बिना किसी तकनीक के तो परिंदा भी पर नही मार सकता . वो निर्भर करता है कि तकनीक काप्रयोग किसी सृजनात्मक कार्य में कैसे किया गया है और किसी अनुसन्धान में कैसे ? तकनीक कविता के सृजन की प्रक्रिया में उसका औजार है जिससे कवि रचना को आकार देता है. इस तकनीक में उस कवि की भाषा विचार कल्पना सभी कुछ शामिल होते है. एक मंझे हुए कलाकार की भांति कवि अपने इन औजारों से सृजन की प्रक्रिया को पूरा करने में सफल होता है. इन्ही औजारों के भीतर छुपी होती है कविता सूत्रबद्ध . ये सूत्र सही और कुशल शिकारी के हाथों में जाकर अपना निशाना जिसे भी बनाते हैं वह पलटवार उस तकनीक से हीसंभव है. वरना कविता अपना ज़हर उस शिकार की देह में डाल कर उसे तड़पने को छोड़ जाती है. तो साथी कविता किसी अनुसंधान से न तो किसी मायने में कमतर है न ही बिना तकनीक के कविता संभव है.

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  25. आप या तो मुझे समझ नहीं पा रहे हैं या फिर समझना चाह नहीं रहे हैं। दोनों ही परिस्थितियों में यहां बात हो पानी संभव नहीं है
    इसे एक बार पढ़िये और बात मिलने पर होगी शायद्…आमीन

    विता की तकनीक? मेरी नज़र में सबसे बड़ी बकवास! कोई ऐसा वैलिडिटी टेस्ट नहीं बना जो कालिदास से नवोदिता तक सब पर लागू हो सके। कौन तय करेगा कि कविता यह है कि नहीं? सिवाय समय और पाठक के कोई और नहीं। अगर एक रचना गहरे तक पहुंचती है और बिना विस्तार दिये आपके मन में एक टीस पैदा कर जाती है, आपकी संवेदना को लयात्मक विस्तार देती है तो वह कविता है। और मैंने इस कविता में वह हासिल किया।

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  26. बेनामीजुलाई 13, 2010

    Navoditaji,

    Who is this Anil Pushker Kaveendra? He doesn't have any other thing to do except defending you. Ashok Kumar Pandey is right.

    Bhavna Dingra

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