शनिवार, जनवरी 9


वजीर- दिल से खेला गया दिमागी खेल
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कमाल की थ्रिलर फ़िल्में भारतीय सिनेमा में कम ही देखने को मिलती हैं| इसके पहले एक फिल्म आई थी- बदलापुर| गजब थ्रिल, ड्रामा, सस्पेंस ! अदभुत !! एक और फिल्म दृश्यम भी बहुत कसी हुई फिल्म थी|

वजीर अपनी कहानी और स्क्रिप्ट में थोड़ा कम है| फिर भी यह फिल्म देखने लायक है|
आतंकवाद जैसे पूरी तरह राजनीतिक मसले को निजी दुश्मनी तक केन्द्रित करके एक आदमी से बदला लेने में अपनी पूरी बुद्धि, तर्क यहाँ तक की जीवन भी झोंक देने की कहानी है -- वजीर |



वजीर में थ्रिल है, ड्रामा है, सस्पेंस है| गजब की कसी हुई फिल्म है| इंटरवल से पहले का हर दृश्य जैसे किसी शार्प खांचे के भीतर रखकर छाँटा गया हो| एक भी दृश्य फालतू नहीं! एक एक दृश्य बस जैसे कहानी को तेजी से आगे बढाने के लिए मरा जा रहा हो| इंटरवल तक फिल्म ज़रा भी विराम नहीं लेने नहीं देती कि आखिर कहानी का मोटिव क्या है | इसके बाद आप को जरा साँस लेने का वक्त मिलता है, आप कहानी पर सोचना शुरू कर सकते हैं| आप वजीर और उसके मास्टर के बारे दिमागी घोड़े दौड़ाने लगते हैं|

कहानी कुछ इस तरह है - फरहान अख्तर यानी दानिश अली एटीएस अफसर है| अचानक हुई आतंकवादी मुठभेड़ में उसकी सात साल की बेटी मारी जाती है| इसके लिए दानिश खुद को कुसूरवार समझता है, और उसकी पत्नी रुहाना (अदिति राव हैदरी) भी उसी को अपनी बेटी की मौत का ज़िम्मेदार मानती है| अपराध बोध और अवसाद में डूबा दानिश अपनी बेटी की मौत का बदला उस आतंकवादी को मार कर लेता है|


इस जाँनिसार मोहरे पर शतरंज के मास्टर ओमकारनाथ धर यानी पण्डित जी की नज़र पड़ गयी है| पंडित जी टूटे दिल के इस बेख़ौफ़ नौजवान से दिली दोस्ती बना लेते हैं| पंडित जी वोडका पीने वाले महापण्डित हैं| एक कार एक्सीडेंट में अपनी पत्नी और अपनी टाँगें खो चुके पंडित जी का दिमाग शतरंज के मोहरों में जिंदगी की चालें बुनता है| एक काश्मीरी मंत्री यज़ाद कुरैशी के घर हुई अपनी बेटी नीना की रहस्यमय मौत का बदला वह मंत्री से लेना चाहते हैं| लेकिन कैसे ? बिना पैर, बूढ़ा शरीर और अकेले , वह अपनी प्यारी बेटी की मौत का बदला एक ताकतवर और शान्ति के मसीहा के रूप में लोकप्रिय मंत्री कुरैशी से कैसे ले?




और एक वजीर है जो पंडित जी की जान के पीछे पड़ा है, क्योंकि वजीर को पता है कि पंडित जी मंत्री से बदला लेना चाहते हैं| कौन है यह वजीर? क्या पंडित जी अपनी बेटी के हत्यारे से बदला लेने में कामयाब हो पाते हैं? और दानिश अली अपने दोस्त पंडित जी को बचा पाता है?


इन सवालों का जवाब तो वजीर देखने पर ही आपको मिलेगा|

फिल्म का पहला हिस्सा बहुत कसा हुआ है| बाद में फिल्म में इमोशनल ड्रामा ज्यादा होने से झोल हो गया है| यह फिल्म कहानी या थ्रिल या सस्पेंस के लिए नहीं बल्कि अमिताभ की अदाकारी के लिए देखी जायेगी|


अमिताभ बच्चन वाकई एक्टिंग के महानायक हैं| बढती उम्र के उनकी हर परफ़ॉर्मेंस मील का पत्थर साबित हो रही है| एक ऐसा रोल जिसके पैर भी नहीं हैं, चेहरे के भावों से ही सब कुछ कह दिया गया है| अमिताभ की बढती उम्र का दिखना इस रोल को और विश्वसनीय और भी उम्दा बना देता है| गजब की एनर्जी, आवाज़, चेहरे की भाव प्रवणता... पहले मैं सोचती थी कि बुढापे में चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, पर अमिताभ का चेहरा तो जैसे पानी की तरह हलचलों से भरा हुआ है|

फिल्म देखी जा सकने का दूसरा कारण हैं फरहान अख्तर की अदाकारी| उन्होंने भी अमिताभ बच्चन के सामने टिकने में सफलता हासिल की है|

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बहुत सुन्दर है| हरियाली के बीच झरती बारिशें... शीशे की दीवारों पर फिसलती बूँदें, काश्मीर के बर्फ से ढंके रास्ते ...

नील नितिन मुकेश का वजीर का छोटा सा रोल बहुत बेहतरीन है, ऊर्जा से भरपूर, एकदम फ्रेश ! वहीँ जॉन अब्राहम के करने को कुछ था ही नहीं|

अदिति के भी करने को कुछ नहीं था| फिर भी यह बात बहुत अच्छी लगी कि निर्देशक ने उनको ऑब्जेक्ट की तरह नहीं बल्कि व्यक्तित्व की तरह ही प्रस्तुत किया है| यह बात पूरी फिल्म में नोटिस करा ले गयी कि महिला किरदार को कहीं भी ऑब्जेक्ट नहीं बनाया गया, मंत्री के घर में जहाँ नीना का इस्तेमाल दिखाया जा सकता था, वहां भी फिल्म बहुत लॉजिकल तरीके से केवल मुद्दे पर केन्द्रित रही|

बिजॉय नाम्बियार की यह फिल्म खोखले राष्ट्रवाद का शिकार नहीं बनी | यह बात तारीफ़ के लायक है| शुरू में जिस तरह नौकरी से बरखास्त दानिश आतंकवादी की निर्मम और अवैधानिक तरीके से हत्या करता है और हॉल में मौजूद युवा राष्ट्रवादी ज़ोरदार तालियाँ और हर हर महादेव का नारा लगाते हैं, उससे तो लगा कहीं यह फिल्म "बेबी" तो नहीं साबित होगी|

फिर भी कहानी में झोल तो है ही| दो मंझे हुए अभिनेता अपने बल पर फिल्म संभाल ले गये, पर अगर एक ज़बरदस्त कहानी भी उनका साथ देती तो यह फिल्म बहुत शानदार हो सकती थी|

आतंकवाद जैसे पूरी तरह राजनीतिक मसले को निजी दुश्मनी तक केन्द्रित करके एक आदमी से बदला लेने में अपनी पूरी बुद्धि, तर्क यहाँ तक की जीवन भी झोंक देने की कहानी है -- वजीर |

ख्याल यह भी आता है कि क्या भारत में कोई ऐसा फिल्मकार नहीं है जो आतंकवाद की जड़ और कारणों को खोलते हुए एक काबिल फिल्म बना पाए!! बजाय "दिल से" या "बेबी" टाइप पैसा कमाऊ और राष्ट्रवाद भुनाऊ फिल्मों के |