गुरुवार, सितंबर 24

राजा को समर्पित
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रात का राजा चलता जाए
सूरज को भी छलता जाए

हँसी के नश्तर रोज चलाये
सुख की कलियाँ कटती जाएँ

सुख के बस नगमे ही गाये
दुखों के काँटे बोता जाए


भूखों के हिस्से का खाये
चमक दमक तब शाह में आये


बैरागी खुद को बतलाये
रंग भरी महफिलें सजाये


खोद खोद मुर्दे उठवाए
सदियों पीछे दौड़ लगाये


बस उलटा ही चलता जाए
सूरज को भी छलता जाए

--संध्या नवोदिता

शनिवार, सितंबर 19

कट्टी बट्टी का फ्लॉप शो


कट्टी बट्टी का फ्लॉप शो
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कट्टी बट्टी का बहुत इंतज़ार था. इधर कंगना रानौत ने फैशन, क्वीन, तनु वेड्स मनु, फिर तनु मनु पार्ट दो से उम्मीदें इतनी बढ़ा दीं कि कंगना के नाम पर किसी भी फिल्म की एडवांस बुकिंग कराई जा सके. इस बार यह रिस्क इमरान खान के बावजूद लिया. जिनके हिस्से में न तो कोई उम्दा फिल्म है न ही अच्छी एक्टिंग. और न ही कोई अच्छा फिल्म चयन. कट्टी बट्टी की नाव पर सवारी करने चल पड़े कि चलो पतवार तो कंगना के हाथ में है.

कंगना के अभिनय ने तो निराश नहीं किया. पर फिल्म की कहानी ही ऐसे ऐसे ट्वीस्ट खाए कि दर्शक को चक्कर आ जाए तो कँगना का अभिनय भी क्या करे.

फिल्म में एक ऎसी लड़की पायल की कहानी है जो बहुत बिंदास सोच की है. कालेज लाइफ में एक लड़का मैंडी उर्फ़ माधव (इमरान खान) उस पर मर मिटता है. पायल उसे प्रेम नहीं करती पर मैंडी के बहुत पीछे पड़ने पर वह प्यार तो नहीं पर टाइम पास के लिए तैयार हो जाती है.

लेकिन बला की खूबसूरत इस डॉल पर मैंडी दिलोजान से फ़िदा है. वह सोचता है पायल भले उसे टाइम पास कह रही है पर वास्तव में वह उसे प्यार करती है. और उसे कभी छोड़ कर नहीं जायेगी.

दोनों लिव इन में रहने लगते हैं. पाँच साल साथ रहने के बाद अचानक एक दिन पायल बिना बताये उसे छोड़ के चली जाती है. मैंडी उसकी खोज में हर संभव जगह भटकता है. एक दिन पायल उसे मिलती है. वह किसी और से शादी करने जा रही है.

इसके आगे कहानी तो बहुत है और खूब पेंच भी हैं, पर कहानी का रस जैसे निकाल दिया है. इसलिए इसके आगे कहानी पता करनी हो तो कट्टी बट्टी पर दो सौ रूपये खर्च कीजिए
तब पता लगेगा कि जो पिक्चर इंटरवल तक देखी वह तो सिर्फ मैंडी यानी इमरान खान के नजरिये थी, फिर दूसरा हिस्सा लगेगा कि यह पायल का पक्ष है... इसके बाद तीसरा हिस्सा है जो सबसे ज्यादा पकाऊ है वह निर्देशक का पक्ष है. जिसमें अजीब ही बात पता लगती है. पुरानी फिल्मों की तरह कि हीरोइन को जानलेवा बीमारी है इसलिए वह हीरो से लड़ने और अलग होने का नाटक कर रही थी. इसके बाद पुरानी फिल्मो की तरह ही हीरो परिस्थितियों से जूझता हुआ हीरोइन को हासिल करता है और कहानी का ढर्रात्मक अंत होता है.

कहानी से कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाएं भी मिलती हैं मसलन--
--लड़की कैसी भी आधुनिक मूल्यों की हो और लड़का कितने भी पारंपरिक मूल्यों का हो, अगर लड़की को कायदे से घेर-घार के पीछे पड़ा रहे तो लड़की पट ही जाती है.
--लड़की प्यार में कितना भी न -नुकुर करे, उसको बोदर ही मत करो जी, उसकी हर न -न को हाँ हाँ ही सुनो.

इसका नाम कट्टी बट्टी नहीं , चट्टी पट्टी भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ना था. फिल्म में गाने और संगीत ठीक ठीक ही हैं, बस किसी तरह गुजर जाते हैं. दृश्यों की भरमार है. फिल्म का ट्रैक ही निर्देशक तय नहीं कर पाया है कि कामेडी बनानी है, या ड्रामा, या कॉमिक या ट्रेजेडी. नतीजा यह कि पिक्चर में सब कुछ ठूँस दिया है.


फिल्म की शुरुआत कुछ उम्मीदों भरी थी. मुझे लगा कि जैसे अब तक कुछ लड़के प्यार को टाइम पास की तरह करते रहे हैं शायद फिल्म लड़की के बहाने इस कहानी को उलट कर दिखायेगी. पर फिल्म का अंत फुल पारम्परिक है. निर्देशक निखिल अडवाणी को लगा होगा कि डी डी एल जे एक ही बार बनी पर देवदास बार बार बनी क्योंकि ट्रेजेडिक लव खूब बिकता है. यह उनकी फिल्म में डायलॉग भी है.


बहरहाल, इसके बाद भी अगर फिल्म देखी जा सकती है तो वह कँगना की दिलकश अदाओं के लिए, उनकी अदाकारी के लिए. हालांकि कँगना बेहद दुबली लगी हैं. कई बार तो कुपोषित भी. या हो सकता है कि बीमारी के कारण ऐसा दिखाया हो. इमरान उनके आगे बच्चे ही लगे हैं.



फिल्म में मैडी के पिता का रोल सुनील सिन्हा ने किया है. एक केयरिंग पिता के रूप में वे बहुत मधुर लगे हैं. उनका आना बहुत स्वाभाविक और ताजगी से भरा है.

जो लोग सलमान टाइप फिल्मे नापसन्द करते हैं वे उससे बचने के लिए इसे देख सकते हैं. क्योंकि उससे तो यह फिल्म ठीक ही है. लेकिन कँगना मैडम .... फिल्म चयन में थोडा सावधान रहिये . हम दर्शक आपको बहुत प्यार करते हैं.

सोमवार, अगस्त 24

यह कौन सा राष्ट्र है जहां दसरथ माझी रहता है !

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दसरथ माझी इस लोकतंत्र के मुँह पर तमाचा है !

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मैंने यह फिल्म रिलीज़ वाले दिन ही देखी. फिल्म देखकर सच मन में गुस्से का ज्वार सा उठता है. रात को ठीक से नींद नहीं आई और मैं सोचती रही जो लोग दसरथ को माउन्टेनमैन या पागल प्रेमी बना रहे हैं वे इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्रूर हत्यारे चेहरे को एक रोमांटिसिज्म के नकाब में ढँक रहे हैं.

दसरथ मांझी की कहानी सब जानते हैं. जीतन राम मांझी के कारण आज सब यह भी जानते हैं कि मांझी बिहार की अतिदलित जाति है जिसके बहुतायत लोग आज भी चूहा खाकर जीने को विवश हैं. कि यह अतिदलित जाति बिहार के जैसे मध्ययुगीन सामंती राज्य व्यवस्था में सवर्ण सामंतों के भयानक दमन और उत्पीड़न का शिकार हुए हैं और आज भी हो रहे हैं.

दसरथ माझी का जीवन जैसा भी फिल्म ने दिखाया बेहद उद्वेलित करता है, कई बार दिल जलता है और भीगता है.

हालांकि फिल्म इससे बेहतर दिखा सकती थी. कमजोर स्क्रिप्ट, अत्यधिक नाटकीयता कई बार बहुत इरिटेट करती है. लगता नहीं केतन मेहता की फिल्म है. फिर नवाज़ का अभिनय साध लेता है. टूटता पहाड़ इसे अपने कन्धों पर रोक लेता है.

कई दृश्य तो बिलकुल नुक्कड़ नाटक की झलक हैं.
इसके बावजूद फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए. तमाम कमियों, कमजोर पटकथा, बनावटी संवादों के बावजूद यह फिल्म एक एहसान है क्योंकि यह फिल्म ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रीय पहचान दिलाती है जिसे दुनिया के सबसे बड़े और मजबूत लोकतंत्र ने सिर्फ उपेक्षित ही नहीं किया बल्कि उसे बहुत तकलीफ दी, बहुत पीड़ा दी. बहुत अपमान दिया.

मैं फिल्म देखती हूँ, दसरथ माझी पहाड़ को चुनौती दे रहा है... खून से सने कपड़े, उसकी चुनौती ..फिल्म का पहला सीन -- और डायलाग सुनते ही हॉल में दर्शकों का तेज ठहाका ! क्यों ? यह तो मार्मिक दृश्य है. दसरथ का दुःख क्रोध में रौद्र हो रहा है. पर दर्शक नवाज़ को देसी भाषा बोलते देख हंस रहा है.

ऐसे और भी संवेदन शील दृश्य हैं जो दर्शकों के ठहाके का निशाना बन गये- क्रूर मुखिया के सामने से दलित चप्पल पहन कर जा रहा है. मुखिया ने आदेश दिया इसकी वो हालत कर दो कि आगे से इसके पाँव चलने लायक भी न रहें, चप्पल तो दूर की बात है. दलित माफ़ी माँगता है, पाँव गिरता है पर मुस्टंडे उसे घसीटकर ले जाते हैं और उसके पाँव दाग देते हैं, भयावह चीत्कार गूंजता है पर दर्शक ठहाका लगाते हैं.

जब युवा दसरथ धनबाद की कोयलरी में काम करके कुछ पैसा कमाने के बाद थोडा बना ठना अपने गाँव लौटता है तो मुखिया क लोग उसे बुरी तरह कूट देते हैं, यहाँ भी दर्शकों का ठहाका सुनाई देता है. फाड़े हुए कपड़ों और नुचे हुए शरीर से भी दसरथ भी अपने घर में मौज लेता है. यहाँ पता नहीं कि असली दसरथ भी ऐसा ही कॉमिक चरित्र का था या नहीं. लेकिन ये फिल्म के कमजोर हिस्से बन गये जो वास्तव में बहुत मजबूत हो सकते थे.

यहाँ माओवादियों के आने और जनअदालत लगा कर मुखिया को फाँसी देने का दृश्य बहुत कमजोर बन गया, जो फिल्म का एक शानदार टर्निंग प्वाइंट हो सकता था. लेकिन शायद निर्देशक दिखाना ही यही चाहते थे जो उन्होंने दिखया.

दसरथ के पत्नी फगुनिया के साथ रोमांटिक दृश्य तो बाहुबली की याद दिलाते हैं. जब झरने की विशाल पृष्ठभूमि में फगुनिया एक जलपरी की तरह अवतरित होती है. क्या प्यार हर जगह ऐसे ही होता होगा. बाहुबली टाइप का. हर फिल्म में नायक-नायिका की कमोबेश एक जैसी छवि. आदिवासी, अति दलित समाज में भी सौन्दर्य के वही रूपक, वही बिम्ब.


अकाल का सीन। लग रहा है यह कोई जंगल की बात है। कोई सरकार नहीं है। कोई देश नहीं है। कोई राहत कोष महीन है। यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है ! यह कौन सी सदी की बात है! तब आदमी चाँद पर तो न ही पहुंचा होगा जब दसरथ माझी आकाश की आग तले पहाड़ तोड़ रहा था। तब शायद पत्थर तोड़ने वाली मशीन भी भारत न आई होगी जब दसरथ पहाड़ तोड़ रहा था.

एक कुआं खोदना बहुत मुश्किल काम होता है, पथरीले इलाके में यह कुआं खोदना बेहद मुश्किल होता है, और पथरीले पहाड़ को तोड़ कर सड़क बनाना.... यह अविश्वसनीय काम है.

जब दसरथ पहाड़ तोड़ रहा था, जब अपनी ज़िन्दगी के बाईस साल उसने सड़क बनाने में लगा दिए, उस समय डायनामाईट से पहाड़ तोड़कर सड़कें बन सकती थीं और यह काम महज कुछ माह का था. पर दसरथ डायनामाईट के ज़माने में छेनी और हथौड़ी से सड़क बना रहा था. और हमारी व्यवस्था गौरवान्वित महसूस कर रही थी.

दसरथ की ज़िन्दगी से यह भी समझ में आता है कि पहाड़ से लड़ना आसान है पर पहाड़ जैसी व्यवस्था से लड़ना बहुत कठिन।

22 साल दशरथ ने पहाड़ तोडा, सबने देखा होगा। लोकतन्त्र के चरों खम्भो को पता था पर कोई खम्भा ज़रा भी डगमगाया नहीं आखिर खम्भा जो था।

तब जनप्रतिनिधि उस क्षेत्र के विधायक सांसद पंचायत क्या करते रहे।

दशरथ माझी कौन है इस देश के महानायक तो अमिताभ बच्चन हैं।

दशरथ माझी को अपने जीवन भर ज़िन्दगी जीने तक का सहारा नहीं मिलता पर उसके नाम पर बनी फ़िल्म करोड़ों कमाती है।

हम फ़िल्म में एडवेंचर पसन्द करते हैं। बेसिकली हम दशरथ को पसंद नहीं करते हम दशरथ द्वारा दिए माउंटेन मैन के मनोरंजन को पसन्द करते हैं। दसरथ जब तक था शायद ही हममे से किसी ने उसके जीवन के बारे में सोचा हो। और शायद ही किसी को यह जानने में दिलचस्पी हो कि दशरथ का परिवार इस समय भी बदहाली में जीने को मजबूर है.

यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है !

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे और तिग्मांशु धूलिया के बेहतरीन अभिनय के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है. फिल्म के पसंद किये जाने का कारण नवाज का लुक और अभिनय ही है.

शुक्रवार, अगस्त 7

ये हर दिन चौबीस घंटा खबरिया चैनलों ने पका दिया है.

ये हर दिन चौबीस घंटा खबरिया चैनलों ने पका दिया है.



हर रोज वही बात--- याकूब मेमन, टाइगर मेमन , फिर उनकी माताजी, फिर उनका फोन.... फिर आसाराम, राधे, सुषमा, स्मृति... वही अपना अपना राग !!


चैनल वाले ख़ुफ़िया, पुलिस, सेना, विदेश मंत्रालय सबका काम खुद ही कर लेने पर उतारू हैं. और हाँ , अदालत तो खैर रोज ही चलाते रहते हैं . हद है !!


आतंकवाद की खबरों को इतना मिर्च मसाला लगाकर चौबीस घंटा उसे तानने की क्या ज़रुरत है. उसे देखने के लिए गृहमन्त्री हैं, खुफिया एजेंसी हैं, उन्हें जो उचित लगे वे फैसला लें. आखिर देश में एक चुनी हुई सरकार है. उस पर आम जनता के साथ मीडिया को भी भरोसा दिखाना चाहिए. हर रोज का यह टीआरपी खोर मीडिया ट्रायल बंद होना चाहिए. मीडिया का काम खबर देना है वे ख़बरें दें. 


कहीं आतंकवादी हमला हुआ तो लाइव प्रसारण, युद्ध हुआ तो लाइव , बंधक बना लिया तो लाइव, मुख्यमंत्री विधान सभा जा रहा है तो लाइव... इधर घटना हुई नहीं , एक पल नहीं बीत पाता , उस पर स्टूडियो महारथियों का नानसेंस विश्लेषण शुरू ! 


इतने फौरी और कच्चे विश्लेषण परोसे जाते हैं कि मीडिया खबर मजाक बन के रह गयी है. यही वजह है कि खबरिया चैनलों की भरमार के बाद भी अखबार न सिर्फ टिके हैं बल्कि प्रसार संख्या भी रुकी नहीं है.



यह समझना चाहिए कि राधे माँ, आसाराम बापू के अलावा इस देश में असली माँ-बाप भी रहते हैं. उनकी भी कुछ बुनियादी समस्याएं हैं. उनके बच्चों के स्कूल दाखिले की समस्या है, अच्छी और सस्ती पढ़ाई, समय से रोजगार, खेल के मैदान, बच्चो को सस्ती चिकित्सा जैसे बहुत से मुद्दे हैं जिन पर बात होनी चाहिए. 



रोज सिर्फ राजनेताओं की आपसी झिक झिक देखने को मिलती है, चैनल स्टूडियो में सब आकर दुश्मनों की तरह भिड जाते हैं. अरे भाई , राजनेताओं के अलावा भी एक दुनिया है, जो देश की समस्याओं पर पढ़ती लिखती और चिंतन करती है, कभी पैनालिस्ट में उन्हें भी बुलाइए.


याकूब मेमन, टाइगर, दाउद, नावेद, आसाराम, राधे ने जो भी किया है इसके लिए क़ानून है . अदालतें हैं, जो इन्हें सजा देना तय करेंगी. हर बात का मीडिया ट्रायल क्यों? और कितने महीने चलेगा? इन सब के चक्कर में असली मुद्दों पर कभी बात ही नहीं होती. फाँसी का मामला इतना लाइव दिखाया गया मानो मीडिया को सब तय करना हो. सत्ता और सरकार भी मीडिया के इसी चरित्र से पूरे समाज में तोड़-फोड़ पैदा करके ध्रुवीकरण करते हैं.


यह भी समझ में आता. अगर आप देश के बाकी कैदियों की कहानी भी कवर करते. देश की जेलों में न जाने कितने विचाराधीन कैदी हैं, कितने ही आरोपी बिना अपराधी सिद्ध हुए ही सिर्फ इसलिए जेल काट रहे हैं कि उनके पास जमानत के लिए पैसा नहीं है, वे गरीब हैं और अच्छा वकील नहीं कर सकते, और कोर्ट में केस की भरमार है उनका नंबर इस जीवन में आयेगा भी कि नहीं, नहीं कहा जा सकता. 


ऐसे तमाम लोगों के मुद्दे को मीडिया नहीं उठाता. वे कोई सेंसेटिव केस उठाते हैं, या अपराधियों में भी स्टार बनाते हैं. मसलन दाउद की हर खबर स्टार वैल्यू की तरह मीडिया दिखाता है. मीडिया की गैर ज़िम्मेदारी की हद यह है कि उन्हें यह नहीं पता कि घर में बहुत छोटे बच्चे भी टीवी देखते हैं. हर पल अपराध खबर देखते वे क्या बनेंगे??



और यह हो भी रहा है. बच्चे अपने कुल टीवी टाइम में अपराधियों, गलत राजनीति और बडबोले नेताओं को जितना सुनते हैं, अच्छी खबर क्या उतनी दी जाती है?? बच्चो के भीतर भी, और युवाओं में भी नैतिक अनैतिक का भेद ख़त्म हो रहा है. जितनी देर दाउद के बारे में बात मीडिया करता है किसी वैज्ञानिक के बारे में, किसी शिक्षक के बारे में, किसानो से सम्बंधित किसी नए सिंचाई यंत्र के बारे में मीडिया कभी बात ही करना नहीं दीखता. ये ख़बरें ही गायब हैं. 


इन सबके बीच मीडिया से जनता गायब है, जन आंदोलनों की ख़बरें गायब हैं, किसान गायब है , किसान के मुद्दे गायब हैं, बदलाव की लड़ाई लड़ रहे तमाम जन नेता गायब हैं, रोजगार की जंग लड़ते युवाओं का संघर्ष गायब है. 


भाई लोगों, सुषमा-सोनिया से आगे बढिए !! हम पैसा देकर रोज आपकी यह बकवास झेलते हैं. इतना पैसा वसूलते हो कम से कम खबर तो दो. घर के भीतर परमानेंट अखाड़ा तो मत खोदो. 


इतना नकार भरा है मीडिया में .... इससे बाहर निकलना होगा. बेशक कारपोरेट चैनलों का हित सत्ता के साथ सधता है और हर चैनल सत्ता का भोंपू बन जाता है. पर जनता को अपनी बात तो कहनी ही होगी. 


शुक्र है , सोशल मीडिया है, जहां अभी बहुत गुंजाइश है. हालाँकि कारपोरेट मीडिया यहाँ भी ट्रेड सेटर का दबाव बनाता है फिर भी सोशल मीडिया में कुछ ताज़ी हवाएं लगातार बहती हैं.

एकदम हाई वोल्टेज फिल्म है दृश्यम

एकदम हाई वोल्टेज फिल्म है दृश्यम



इतनी दमदार कहानी, उत्सुकता, अभिनय, रोचकता कि पूरी फिल्म भर आप यह भूल जायेंगे कि आप किस शहर में हैं और कहाँ बैठे हैं ! बस परदे पर फिल्म चल रही है और आप खुद जैसे एक पात्र बनकर उसमे शामिल हैं. फिल्म का हर मूव, हर अटैक जैसे आप पर ही हो रहा है और साँसें जैसे अटक सी जाती हैं, दिल खुद ही थम जाता है.


क्या सही है ..क्या गलत, नैतिक- अनैतिक , कानूनी गैर कानूनी के तमाम पचड़े सोचने का फिल्म मौका ही नहीं देती. जब तक आप हॉल में होते हैं बस कहानी ही राज करती है.
फिल्म दर्शक की नब्ज़ ही नहीं पकड़ती, नसें तक तनाव में ला देती है.


दृश्यम.... यह अनोखा सा नाम है फिल्म का. ऐसे नाम साधारणतः हिंदी फिल्मो के नहीं होते. दक्षिण की फिल्मो में ऐसे संस्कृतनिष्ठ नाम ज़रूर मिलते हैं. यह मुझे बाद में पता लगा कि यह फिल्म मलयालम में बनी थी, जिसे 2013 में रिलीज़ किया गया. यह मलयालम की सुपर डुपर हिट फिल्म रही और 50 करोड़ कमाने वाली मलयालम की पहली फिल्म बनी जो 150 से भी ज्यादा दिन तक मलयाली सिनेमाघरों में दौड़ती रही.

दृश्यम - हिंदी में रीमेक हुई. कहानी और निर्देशन इतना दमदार है कि आप समझ सकते हैं कि बाहुबली और बजरंगी भाईजान की आँधी में भी दृश्यम को हिंदी फिल्म दर्शकों का ज़बरदस्त रुझान हासिल हुआ.

कहानी संक्षेप में यह है कि अजय देवगन एक सामान्य मध्यवर्गीय विजय सालगांवकर है, जो केबल का बिजनेस करता है. वह सिर्फ चौथी पास है और फिल्मों का इतना शौकीन है कि कोई फिल्म नहीं छोड़ता. उसके लिए पत्नी (श्रिया सरन) और दो बेटियों का अपना परिवार ही उसकी पूरी दुनिया है जिसे किसी भी मुसीबत से बचाने के लिए वह कुछ भी कर सकता है.


एक दिन आईजी मीरा देशमुख (तबू) का युवा बेटा सैम , जो थोड़ा बिगडैल है, उसके घर आ पहुँचता है. वह विजय की बेटी को ब्लैकमेल करता है और घर पर मौजूद बेटी और माँ के हाथों अनचाहे वह मारा जाता है. विजय अपनी अनुपस्थिति में हुई इस घटना को छिपाने और अपने परिवार पर कोई आंच न आने देने का निर्णय लेता है.


इस कवायद में पूरा परिवार हर पल मर मर के कैसे जीता है, किस मानसिक यंत्रणा से गुजरता है, और विजय कैसे पुलिसिया रौब दाब और दबंगई का सामना पूरे परिवार के साथ मिलकर करता है, और आखिरकार दृश्यम का एक भला अंत होता है.


मजे की बात यह कि एक्शन के लिए मशहूर अजय देवगन ने इस फिल्म में कोई एक्शन नहीं किया है, न कोई इंटिमेट सीन, न कोई आजकल वाली अश्लीलता, न आइटम सॉंग--- फिल्म पूरी तरह ड्रामा थ्रिलर है. मुझे याद नहीं इतनी कसी हुई फिल्म पहले कब देखी थी.
अजय देवगन और तबू का अभिनय ज़बरदस्त है. साथ में रजित कपूर हमेशा की तरह स्वाभाविक.


जब कोई फिल्म हिट होती है तो पूरी टीम का ही ज़बरदस्त योगदान होता है. उन सब की तारीफ़ एक नाम में करने की कोशिश की जाए तो वह नाम है फिल्म के निर्देशक - निशिकांत कामत का.


तो....
अगर अब तक फिल्म टिकी हो, क्योंकि रिलीज़ हुए काफी समय हो गया, तो आप भी देख ही लीजिये. दृश्यम !!

शनिवार, अगस्त 1

यह लड़ाई देश बेचने वालों के खिलाफ देश बचाने वालों की है.



जनता में फूट डालो राज करो =====================

फाँसी हो गयी न... ! तो यह अंत थोड़े ही हो गया. इसके आगे अब तो शुरू होगा.


शुरू होगा नहीं हो चुका है. 3 अगस्त से मुस्लिम मुक्त भारत का ऐलान हिन्दू महासभा करने जा रही है.
तीन अगस्त याने सावन का पहला सोमवार, शिव के जलाभिषेक के लिए कांवरियों के जत्थे आना, और इन काँवरियों का फायदा राजनीति के लिए उठाना.

क्या हिन्दू मुसलमान की लड़ाई ही देश की असल लड़ाई है. और मुसलमान मुक्त भारत बनाने से देश की सारी समस्याएं हल हो जायेंगी?

क्या कोई भी देश अपने यहाँ से किसी दूसरी कौम को जड़ मूल नष्ट कर पाया है? पूरी दुनिया में ऐसा कोई भी देश है आपकी निगाह में ? हिटलर ने जर्मनी में ऐसा प्रयोग किया पर हुआ क्या ...

हिटलर को आत्महत्या करनी पड़ी और यहूदी आज इस्रायल में शान से बैठे हैं.

पाकिस्तान मुस्लिम देश बना, भारत धर्म निरपेक्ष. कौन ज्यादा सफल है? यह उदाहरण भी देख लीजिये.

तो आपको लगता है यह वर्चस्व की लड़ाई है. जब मुसलमानों पर हिन्दू वर्चस्व स्थापित हो जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा.

सच में आपको लगता है ठीक हो जाएगा. आपको नहीं लगता पूरी दुनिया में हिन्दुओं की तादाद की तुलना में मुसलमानों की तादाद कितनी है? ऐसे में आपकी तथाकथित वर्चस्व की लड़ाई का सच में कोई नतीजा निकलेगा? आपको समझ में नहीं आता कि ऐसा करके आप अपने हिन्दू भाइयों के लिए ही पूरी दुनिया असुरक्षित बना लेंगे. क्या आप अमरीकन ईसाईयों की स्थिति नहीं देखते. जो अपनी ही बनाई चारदीवारी में कैद हो गए हैं.

क्या सच में एक साथ रहना इतना मुश्किल लगता है आपको कि इसकी तुलना में मुसलमानों से भारत को मुक्त कराना आसान लगने लगा है.

भारत मुसलमानों से खैर क्या मुक्त होगा बहरहाल इस बहाने आप अपनी सत्ता का सिंहासन ज़रूर और कुछ सालों के लिए सुरक्षित कर लेना चाहते हैं.


ऐसा होता है. ऐसा ही होता है. सत्ता का नशा आदमी को आदमी नहीं रहने देता.

सत्ता के नशे में आप बौरा गए हैं.

आप झूठ बोलते हैं.

आप धर्म का इस्तेमाल सत्ता के लिए करना चाहते हैं.

आप बड़े बड़े नेता, हमारे देश के भाग्य विधाता बने बैठे हैं.

आप हमें एकजुट नहीं देखना चाहते. आप हमारे एक साथ होने से डरते हैं.

आप हमारी एकता से डरते हैं. आप डरते हैं कि हम एक हो गए तो आप जिस तरह देश के संसाधन, देश का पानी, देश का खनिज, देश का लोहा कौड़ियों के मोल लुटा रहे हैं, और कारपोरेट कारपोरेट आकाओं से मोटा माल लेकर देश की लूट करा रहे हैं, वह नहीं हो पायेगी !!

आप डरते हैं कि हम हिन्दू मुसलमान एक हो गए तो हम आपसे सवाल करेंगे. हम आपसे बेरोजगारी के बारे में बात करेंगे. घोटालों में जो अरबों खरबों रुपया आप डकार कर बैठे हैं हम उसके बारे में पूछेंगे. हमारे पेट काटकर जमा किये हुए टैक्सों पर जो आप ऐश कर रहे हैं हम उसका जवाब मांगेंगे.

आप नदियाँ बेच रहे हैं, पानी बेच रहे हैं, शस्य श्यामला धरती जहां घर घर प्याऊ होते थे वहां आपने कारपोरेट का पानी खरीदने को जनता को मजबूर कर दिया.

हमारे प्यारे नौजवानों को जिन्हें उनके माँ-बाप नाजों से पालते हैं , दूध-बादाम खिलाकर मजबूत बनाते हैं, उनकी मेहनत को मामूली वेतन में कारपोरेट का गुलाम बनवा दिया, कि जब तक शरीर में दम रहे कारपोरेट उनका खून चूसे फिर नौकरी से निकाल फेंके.

आप ने डिग्रियाँ बेचीं, फिर नौकरियाँ बेचीं, इलाज बेचा, आदमी के अंग बेचे, बच्चे बेचे, सेक्स बेचा.....

यह सब आपने किया हुज़ूर बड़े मालिक, मेरे देश के कर्णधार !!

और यह कोई आपने पहली बार नहीं किया, और हमने पहली बार नहीं झेला. आप आज़ादी के समय से हमें हिन्दू मुसलमान बनाते रहे हो.

और आप क्या... आपसे पहले अंग्रेजों ने भी यही किया है. हिन्दू मुसलमान वाला पाठ आपने उनसे खूब बढ़िया सीखा. आप जनता को हिन्दू मुसलमान बनाने की परीक्षा में विशेष श्रेणी से उत्तीर्ण हैं सरकार.

1857 में जब हिन्दू मुसलमान मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लडे थे, तभी अंग्रजों ने देश कमजोर करने के इस अचूक ब्रह्मास्त्र की खोज कर ली थी. हिन्दू मुसलमान की एकता तोड़ दो !!

अब एकता का क्या... यह तो जुडवां बच्चों की भी तोड़ी जा सकती है. एक को बढ़िया खाने को दो , दूसरे को मांगने पर ही खाना दो. बस इतनी सी बात से दोनों के बीच कटुता आ जायेगी. और आप तो इसमें पी एच डी हैं.

जनता में फूट डालो राज करो ... अंग्रेजों का दिया यह पुराना गुरुमंत्र आप आज भी खूब मजे से जप रहे हैं.

जनता का ध्यान भटकाओ और देश की संपत्ति कारपोरेट को लुटाओ.

क्या बात है जनाब !! आप तो असली शातिर निकले ! अंग्रेजों के असली चेले !

तभी न इक्कीसवीं सदी में जहां आदमी चाँद से भी आगे पहुँच गया है आप जनता को चौदहवीं सदी की मूर्खताओं में धकेल रहे हैं.

अंग्रेजों में और आपमें अंतर यही है कि आप हमारा खून होकर हम से ही दगा कर रहे हैं. अँगरेज़ तो बाहर से आये थे, आप तो उनसे भी बड़े धूर्त, ठग और चालबाज निकले. आप अपनी ही औलाद का खून पी रहे हैं. अपनी औलाद का खून पीने वाले को क्या कहते हैं मुझे नहीं पता !!
भारत में असली लड़ाई हिन्दू मुसलमान की नहीं है. मैं इस बात के लिए किसी से भी तार्किक बहस के लिए तैयार हूँ. आइये और सिद्ध कीजिये कि लड़ाई हिन्दू और मुसलमान की है.

हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच लड़ाई का एक पूरा जाल रचा गया है. और यह जाल पहले अंग्रेजों ने रचा था इस बार षड्यंत्रकारी काले अँगरेज़ हैं.

हिन्दू मुसलमान की बहस करेंगे तो कोई राष्ट्र प्रेमी साबित हो जाएगा कोई राष्ट्र द्रोही साबित हो जाएगा. कट्टर हिन्दू अपनी बात कहेगा, कट्टर मुस्लिम मार काट पर उतारू हो जाएगा. लिबरल हिन्दू कमज़ोर मुसलमान के साथ खड़ा हो जाएगा.

माने पूरा देश हिन्दू मुसलमान में बँट जाएगा. और एक दूसरे पर इलज़ाम लगाएगा और बहस करेगा.

जो आराम से बैठे सत्ता की मलाई खा रहे हैं वे जनता में मल्ल युद्ध आयोजित कराके जज बनकर मज़ा भी लेंगे और इस मासूम जनता के लहू में डूबी इस स्वर्ण सत्ता का सुख भोगेंगे.

आप भी इस बात के खिलाफ अपने आसपास बात कीजिए. यह लड़ाई हिन्दू मुसलमान की नहीं है.
यह लड़ाई कमज़ोर बनाम ताकतवर की है.
यह लड़ाई देश बेचने वालों के खिलाफ देश बचाने वालों की है.