ये हर दिन चौबीस घंटा खबरिया चैनलों ने पका दिया है.
हर रोज वही बात--- याकूब मेमन, टाइगर मेमन , फिर उनकी माताजी, फिर उनका फोन.... फिर आसाराम, राधे, सुषमा, स्मृति... वही अपना अपना राग !!
चैनल वाले ख़ुफ़िया, पुलिस, सेना, विदेश मंत्रालय सबका काम खुद ही कर लेने पर उतारू हैं. और हाँ , अदालत तो खैर रोज ही चलाते रहते हैं . हद है !!
आतंकवाद की खबरों को इतना मिर्च मसाला लगाकर चौबीस घंटा उसे तानने की क्या ज़रुरत है. उसे देखने के लिए गृहमन्त्री हैं, खुफिया एजेंसी हैं, उन्हें जो उचित लगे वे फैसला लें. आखिर देश में एक चुनी हुई सरकार है. उस पर आम जनता के साथ मीडिया को भी भरोसा दिखाना चाहिए. हर रोज का यह टीआरपी खोर मीडिया ट्रायल बंद होना चाहिए. मीडिया का काम खबर देना है वे ख़बरें दें.
कहीं आतंकवादी हमला हुआ तो लाइव प्रसारण, युद्ध हुआ तो लाइव , बंधक बना लिया तो लाइव, मुख्यमंत्री विधान सभा जा रहा है तो लाइव... इधर घटना हुई नहीं , एक पल नहीं बीत पाता , उस पर स्टूडियो महारथियों का नानसेंस विश्लेषण शुरू !
इतने फौरी और कच्चे विश्लेषण परोसे जाते हैं कि मीडिया खबर मजाक बन के रह गयी है. यही वजह है कि खबरिया चैनलों की भरमार के बाद भी अखबार न सिर्फ टिके हैं बल्कि प्रसार संख्या भी रुकी नहीं है.
यह समझना चाहिए कि राधे माँ, आसाराम बापू के अलावा इस देश में असली माँ-बाप भी रहते हैं. उनकी भी कुछ बुनियादी समस्याएं हैं. उनके बच्चों के स्कूल दाखिले की समस्या है, अच्छी और सस्ती पढ़ाई, समय से रोजगार, खेल के मैदान, बच्चो को सस्ती चिकित्सा जैसे बहुत से मुद्दे हैं जिन पर बात होनी चाहिए.
रोज सिर्फ राजनेताओं की आपसी झिक झिक देखने को मिलती है, चैनल स्टूडियो में सब आकर दुश्मनों की तरह भिड जाते हैं. अरे भाई , राजनेताओं के अलावा भी एक दुनिया है, जो देश की समस्याओं पर पढ़ती लिखती और चिंतन करती है, कभी पैनालिस्ट में उन्हें भी बुलाइए.
याकूब मेमन, टाइगर, दाउद, नावेद, आसाराम, राधे ने जो भी किया है इसके लिए क़ानून है . अदालतें हैं, जो इन्हें सजा देना तय करेंगी. हर बात का मीडिया ट्रायल क्यों? और कितने महीने चलेगा? इन सब के चक्कर में असली मुद्दों पर कभी बात ही नहीं होती. फाँसी का मामला इतना लाइव दिखाया गया मानो मीडिया को सब तय करना हो. सत्ता और सरकार भी मीडिया के इसी चरित्र से पूरे समाज में तोड़-फोड़ पैदा करके ध्रुवीकरण करते हैं.
यह भी समझ में आता. अगर आप देश के बाकी कैदियों की कहानी भी कवर करते. देश की जेलों में न जाने कितने विचाराधीन कैदी हैं, कितने ही आरोपी बिना अपराधी सिद्ध हुए ही सिर्फ इसलिए जेल काट रहे हैं कि उनके पास जमानत के लिए पैसा नहीं है, वे गरीब हैं और अच्छा वकील नहीं कर सकते, और कोर्ट में केस की भरमार है उनका नंबर इस जीवन में आयेगा भी कि नहीं, नहीं कहा जा सकता.
ऐसे तमाम लोगों के मुद्दे को मीडिया नहीं उठाता. वे कोई सेंसेटिव केस उठाते हैं, या अपराधियों में भी स्टार बनाते हैं. मसलन दाउद की हर खबर स्टार वैल्यू की तरह मीडिया दिखाता है. मीडिया की गैर ज़िम्मेदारी की हद यह है कि उन्हें यह नहीं पता कि घर में बहुत छोटे बच्चे भी टीवी देखते हैं. हर पल अपराध खबर देखते वे क्या बनेंगे??
और यह हो भी रहा है. बच्चे अपने कुल टीवी टाइम में अपराधियों, गलत राजनीति और बडबोले नेताओं को जितना सुनते हैं, अच्छी खबर क्या उतनी दी जाती है?? बच्चो के भीतर भी, और युवाओं में भी नैतिक अनैतिक का भेद ख़त्म हो रहा है. जितनी देर दाउद के बारे में बात मीडिया करता है किसी वैज्ञानिक के बारे में, किसी शिक्षक के बारे में, किसानो से सम्बंधित किसी नए सिंचाई यंत्र के बारे में मीडिया कभी बात ही करना नहीं दीखता. ये ख़बरें ही गायब हैं.
इन सबके बीच मीडिया से जनता गायब है, जन आंदोलनों की ख़बरें गायब हैं, किसान गायब है , किसान के मुद्दे गायब हैं, बदलाव की लड़ाई लड़ रहे तमाम जन नेता गायब हैं, रोजगार की जंग लड़ते युवाओं का संघर्ष गायब है.
भाई लोगों, सुषमा-सोनिया से आगे बढिए !! हम पैसा देकर रोज आपकी यह बकवास झेलते हैं. इतना पैसा वसूलते हो कम से कम खबर तो दो. घर के भीतर परमानेंट अखाड़ा तो मत खोदो.
इतना नकार भरा है मीडिया में .... इससे बाहर निकलना होगा. बेशक कारपोरेट चैनलों का हित सत्ता के साथ सधता है और हर चैनल सत्ता का भोंपू बन जाता है. पर जनता को अपनी बात तो कहनी ही होगी.
शुक्र है , सोशल मीडिया है, जहां अभी बहुत गुंजाइश है. हालाँकि कारपोरेट मीडिया यहाँ भी ट्रेड सेटर का दबाव बनाता है फिर भी सोशल मीडिया में कुछ ताज़ी हवाएं लगातार बहती हैं.
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