रचा - 'प्रेम-युग'
तुम नहीं बदली
जब
रचा - 'शांति पर्व'
तुम नहीं बदली
जब तक
जिया - 'क्रान्ति-काल'
तुम नहीं बदली
जब
कहा - सर्वत्र फैला
'मृत्यु-पाश'
तुम नहीं बदली
ज्यूँ ही
लिखा - 'देह'
तुम्हारे जीने के
सारे व्याकरण बदल गये
तुम किस 'सूत्र' में बंधी हो.
आ सकती हो
मेरी
सारी- 'शक्ति-पूजा'
तुम तक नहीं पहुँचती
(धरती, आकाश, वायु, प्रकाश)
व्याधि हैं
किन्तु! तुम
आ सकती हो
समूचा अस्तित्व धारण किए
प्रकृति में विचरण किए
जहाँ
शिलाखण्डों में बैठी
घास को सहला सको
साहचर्य और प्यार किए
हम
कोख में बो सकें
क्रान्ति के आसार-बीज.
( प्रस्तुत हैं अनिल पुष्कर कवीन्द्र की कवितायें ... पुष्कर जे.एन.यू.से रिसर्च कर रहे हैं .)
अद्भुत रचाना।
जवाब देंहटाएंऔर एक सुझाव है कि सिरलेख जगह में ब्लॉग़ पते से अच्छे है कविता का सिरलेख डाले।
नवोदिता जी अच्छी,अच्छी कविता का चुनाव करतीं है,लगता है,अध्यन में बहुत रूचि है,अब तो आपकी व्यस्तता समाप्त हो गयी होगी ।
जवाब देंहटाएंjyo hi likha deh...kya gjb kvita...
जवाब देंहटाएंbhut hi achhi kavita ka chunaav kiya hai aap ne dhnybaad
जवाब देंहटाएंsaadar
praveen pathik
9971969084
blog stariya hai evam utkrisht rachnaaon kaa chayan kiya gaya hai.
जवाब देंहटाएंarunesh mishra
kaviarunesh.blogspot.com
निवेदिता जी .
जवाब देंहटाएंकृपया नयी पोस्ट डालती रहें ।
sandhyaa.....sachmuch acchaa likhti ho tum...
जवाब देंहटाएं