मंगलवार, जनवरी 19

ज्यूँ ही लिखा! देह         जब मैंने
रचा - 'प्रेम-युग'
तुम नहीं बदली
जब
रचा - 'शांति पर्व'
तुम नहीं बदली
जब तक
जिया - 'क्रान्ति-काल'
तुम नहीं बदली
जब
कहा - सर्वत्र फैला
'मृत्यु-पाश'
तुम नहीं बदली
ज्यूँ ही
लिखा - 'देह'
तुम्हारे जीने के
सारे व्याकरण बदल गये
तुम किस 'सूत्र' में बंधी हो.
सकती हो
मेरी
सारी- 'शक्ति-पूजा'
तुम तक नहीं पहुँचती
(धरती, आकाश, वायु, प्रकाश)
व्याधि हैं
किन्तु! तुम
सकती हो
समूचा अस्तित्व धारण किए
प्रकृति में विचरण किए
जहाँ
शिलाखण्डों में बैठी
घास को सहला सको
साहचर्य और प्यार किए
हम
कोख में बो सकें
क्रान्ति के आसार-बीज
( प्रस्तुत हैं अनिल पुष्कर कवीन्द्र की कवितायें ... पुष्कर जे.एन.यू.से रिसर्च कर रहे हैं .)

7 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत रचाना।

    और एक सुझाव है कि सिरलेख जगह में ब्लॉग़ पते से अच्छे है कविता का सिरलेख डाले।

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  2. नवोदिता जी अच्छी,अच्छी कविता का चुनाव करतीं है,लगता है,अध्यन में बहुत रूचि है,अब तो आपकी व्यस्तता समाप्त हो गयी होगी ।

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  3. bhut hi achhi kavita ka chunaav kiya hai aap ne dhnybaad
    saadar
    praveen pathik
    9971969084

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  4. blog stariya hai evam utkrisht rachnaaon kaa chayan kiya gaya hai.

    arunesh mishra
    kaviarunesh.blogspot.com

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  5. निवेदिता जी .
    कृपया नयी पोस्ट डालती रहें ।

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